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न शरात्, न व्याधात् किन्तु भयात् मृतोऽस्मि । अधुनाहं न जीवितं जीवामि, किन्तु भयं जीवामि । न वने किन्तु क्लैब्ये श्वसिमि । न तृणमद्मि किन्तु मम द्वन्द्वमद्मि ।
न हरिण्याम्, अपि तु स्वलघुतायां मे स्नेहः । कोऽपि मम मृगत्वाय मृत्यु ददातु (मृगता - १)
नगर सभ्यता में सन्त्रासवाद, आजीविका, प्रदूषण, भय, महगाई आदि के बिच डर डर कर जीनेवाला मनुष्य शाकुन्तल का मृग बन गया है । 'मृगत्व' का प्रतीक मनुष्य की लाचारी, भय, सन्त्रस्त मानसिकता सूचित करता है। अभिराज डॉ. राजेन्द्र जी गजल 'मनो लग्नम्' में
मेनकां त्वां निजाश्रमे लब्ध्वा कौशिकीभूय मे मनो लग्नम् ॥ वातलोलं तवाञ्चलं दृष्टवा कण्टकीभूय मे मनो लग्नम् ॥ चञ्चलं प्रेक्ष्य भाग्यपाठीनम् । धीवरीभूय मे मनो लग्नम् ॥ प्रीतिपत्रेऽर्ध एवं मुक्तेऽपि वाचकीभूय मे मनो लग्नम् ॥ सूत्रधारस्य तेऽवितुं नाट्यम् ।
मारिषीभूय मे मनो लग्नम् ॥ (मधुपर्णी पृ. १८) आदि पंक्तियों में मन का चांचल्य, आवेग, अधीरता, प्रणय की विवशता और परमात्मा के साथ आत्मा की सृष्टिप्रपंच में लीला-शाकुन्तल की पृष्ठभूमि में नये संदर्भ प्रस्तुत हैं । जिस समय 'मोहरा' फिल्म का गीत 'तुं चीज बडी है मस्त मस्त' की धून लोगों के मन में सवार थी तब एक संस्कृत कवि का चित्त व्यग्रता से वही लय में शाकुन्तल के सन्दर्भ से ‘कान्तासम्मित' उपदेश कैसे देता है यह डॉ. भास्कराचार्यजी की गीति बताती है
त्वं शब्दसंयमं रक्ष रक्ष पौरव निजनियमं रक्ष रक्ष
परम्परा और आधुनिकता
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