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परम्परा और आधुनिकता*
डो. हर्षदेव माधव
संस्कृत सर्जकों एवं विवेचको में एक भ्रान्त धारणा है कि वर्तमान युग में लिखा गया प्रत्येक सर्जन आधुनिक है। विश्व के विवेचनग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि 'वर्तमान' 'समकालीन' 'अर्वाचीन' एव 'आधुनिक' अलग अलग परिभाषाएं हैं। आधुनिकता का सम्बन्ध काल विशेष के साथ नहीं है, अपितु आधुनिकता के विशिष्ट लक्षण हैं। ये लक्षण हैं -
भावक की उपेक्षा
विलक्षण जीवनदर्शन ३. प्रकृति से अलगता, आदिमवृत्तियों का स्वीकार ४. अस्तित्व को ढूंढने का प्रयत्न
कृति की स्वायत्तता का स्वीकार कुत्सित वस्तुओं की निर्भीक अभिव्यक्ति जन्तुकल्प तुच्छ मानव के नैराश्य का चित्रण आदि-उसमें ईश्वर के अस्तित्व का अस्वीकार, परम्परा का अस्वीकार, भाषा में प्रतीक, बिम्ब, पुरा बिम्ब (मिथक) आदि
का प्रयोग, अविषयोंको विषय बनाना भी संलग्न है । डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी संस्कृत साहित्य को बीसवीं शताब्दि के परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में निम्न लिखित रूप में देखते हैं -
(१) राजनैतिक पार्श्वभूमि (२) गान्धीवाद का प्रभाव. (३) राष्ट्रभाव का सातत्य (४) सामाजिक चेतना (५) विडम्बन शैली (६) नवचेतना (७) विषयनाविन्य (८) समकालिकता (९) नवीन विधाओं की स्थापना (१०) प्राचीन विधाओं में वस्तु विन्यास का नाविन्य (११) परम्परा और आधुनिकता का समन्वय (१२) यथार्थबोध (१३) व्यक्तिवाद का उदय (१४) परम्परा-आधुनिकता का द्वन्द्व (१५) नव अर्थ का सम्धान।
परम्परा को भी नये युगबोध के साथ प्रस्तुत करने की शक्ति संस्कृत के कुछ सर्जकों में हैं।
संस्कृत का एक विशाल समूह अभी भी निष्प्राण महाकाव्य, नेताओं की चापलूसी, चौरकला में प्रवीण स्तोत्रकाव्यों, रसनिष्पत्ति के नाम पर स्थूल शृंगारिक रचनाओं में व्यस्त हैं। दूसरी ओर परम्परा को नये
बम्बों एवं कल्पनाओं के साथ प्रस्तत कर रहे सर्जक, भले हि कम संख्या में हैं, लेकिन हैं। ऐसे कुछ उदाहरणों को प्रस्तुत करने का यहाँ उपक्रम्पा है ।
"प्रेक्षणसप्तकम्' में राधावल्लभजी ने 'धीवरशाकुन्तलम्' लिखा है। उसमें नायक धीवर है, दुष्यन्त
* 44 AIOC कुरुक्षेत्र में प्रस्तुत शोधपत्र, + अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, ह. का. आर्ट्स कोलेज, आश्रम रोड, अहमदावाद-९ परम्परा और आधुनिकता
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