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नही । शकुन्तला धीवर की प्रेयसी है। दरेक प्रेमी की अपनी अपनी शकुन्तला होती है न! यही आधुनिक युगबोध है । कभी कभी प्राचीन रचना के रस में परिवर्तन भी परम्परा को नया रूप देता है । जैसा कि शाकुन्तल के एक श्लोक का परिवर्तन हास्य रस निष्पन्न करता है।
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अस्मिन्नलक्षितनतोन्नतभूमिभागे
'टोपी' समुच्छलति भोस्तव मूनि नेतः ॥
(सन्धानम्. पृ. ६)
यहाँ आपन्नसत्त्वा शकुन्तला के कहे गये शब्द नेताओं के लिए भी कितने योग्य हैं। राजनीति का मार्ग भी 'अलक्षित' 'नेतोन्नत' (उबड़ खाबड़ ) हैं है ने ! दूसरा एक मेरा पद्य शाकुन्तल के चतुर्थ अंक के प्रसिद्ध श्लोक को इस तरह भावपरिवर्तन देता है
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यास्यत्यद्य पितुर्गृहं न दविता हर्षेण व्याप्तं मनः द्रष्टुं कामपि कामिनीं हि नितरां सर्वाधिकारा नु मे । 'होटेलं' विजनं सखीमुपवनं नीत्वा सिनेमागृहं
कां कां वीक्ष्य पुनः पुनश्च विरहं कुर्वे नवीनोत्सवम् ॥
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डो. कलानाथ शास्त्रीजीने भी शाकुन्तल श्लोको के कुछ व्यंग्यात्मक पद्य लिखे थे और सागर विश्वविद्यालय की संगोष्ठी में प्रस्तुत किये थे ।
डॉ. दयानन्द भार्गवजी ने दुष्यन्त का शकुन्तल के प्रत्याख्यान प्रसंग पर अचेतन और चेनत मन का संघर्ष अछान्दस छान्दस शैली का संयोजन करके पद्यबद्ध किया है। मेरे 'भावस्थिराणि जननान्तरसौहदानि ' में 'शाकुन्तले शापक्षणाः' कृति में शकुन्तला के मिले शाप की असर अन्य पात्रों पर क्या होती है - वह प्रत्येक पात्रकी स्वगतोक्ति के प्रतिभाव के साथ शब्द बद्ध है। लेकिन कविता लम्बी होने के कारण चर्चा छोड देता हूँ | कभी कभी मूलकृति को दूसरे दोर से देखने से नूतन भावबोध आ सकता है। शाकुन्तल
प्रथम अंक में मृगयाविहारी राजा पर हमारी दृष्टि केन्द्रित रहती है। राजा के रथ का वेग, राजा और सारथि की उक्तियों से हम उन्हे देखते रहते है । लेकिन मैने मेरे केमरा का फॉकस मृग की और किया । इस मृग की व्यथा इन शब्दों में सामने आयी
मृगत्वम् -
शरपतनभयात्
भूयसा पूरवकायं प्रविष्टोऽहं
यदा
ग्रीवां व्रक्रां कृत्वा
पश्यामि,
तदा
नास्ति शरः,
नास्ति व्याधः,
नास्ति पदात् पदमनुसरति मृत्युः ।
सामीप्य : पु. २५, खंड 3-४, खोस्टो २००८ भार्य, २००८
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