Book Title: Samipya 2008 Vol 25 Ank 03 04
Author(s): R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 84
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथर्ववेद में जलचिकित्सा डॉ. सुरेखा पटेल * वेद भारतीय संस्कृति की गंगोत्री है । वेदोत्तर काल में जो भी शास्त्र और दर्शनों की रचना की गई वह सभी के मूल वेद में हैं। वेद चार होने पर भी सामान्यतः 'त्रयी' शब्द तीन वेदों के लिए विख्यात है । अथर्ववेद को इसी तरह अलग बताने का एक रहस्य है । अथर्ववेद का मूल नाम 'अथर्वागिरोवेद' है । इसमें अथर्वा और अंगिरा ऋषियों के दर्शन किए हुए मंत्रो का संग्रह है । 'अथर्व' और 'अंगिरस' के मंत्रो के संग्रह इस में हैं, इसीलिए 'अथर्वांगिरस' वेद कहलाता है। 'अथर्वा' नामके ऋषियों के मंत्र हितकारी है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो White Magic है । जबकि अंगिरा ऋषियों के मंत्र जारणमारण में उपयोगी है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो Black Magic कहलाता है । I अथर्ववेद जन-सामान्य का वेद है । क्षात्रवेद और आयुर्वेद का आदिस्त्रोत है । अथर्ववेद के मंत्रो के बारे में गोपथब्राह्मण, कौशिकसूत्र, बैतानसूत्र, नाक्षत्रकल्प, आंगिरसकल्प, अथर्ववेद परिशिष्ट और शांतिकल्प के विनियोग देखते हुए मेघाजनन, अध्यात्म, ब्रह्मचर्य, ग्राम - नगर राष्ट्र की सुरक्षा, पशु-पुत्र -धन-धान्य और पशु संपत्ति की प्राप्ति, प्रजा की एकता, राजकर्मसंग्राम, जय-साधन, शत्रु-सेना-संमोहन, स्तंभन, उच्चाटन जैसे अभिचार कर्म, गृहनिर्माण, वर्चस्यप्राप्ति, भैषज्य विवाह, गर्भाधान, उपनयादि संस्कार, सौभाग्यवर्धन, वाणिज्यलाभ, कृषि आदि विषय के व्याप देखते हुए अथर्ववेद संस्कृति, धर्म, जन-विश्वास, रोग और ओषधोपचार का विश्वकोश है । यह संदर्भ से वह जनसमाज का वेद है, और उसके ताव- तकमन्, मेघाजनन, कृषि, सुखप्रसूति, आत्रबबंध, केश संवर्धन, अपामार्ग आदि सूक्त देखते हुए अथर्ववेद जीवन-विज्ञान का वेद दिखाई देता है । अथर्ववेद के मैषज्य सूक्त और आयुष्य सूक्तो में आयुर्वेद के बीज है । वृक्ष और वनस्पतियों की रोग निवारने की और आयुष्य की वृद्धि करने की शक्ति अथर्ववेद के ऋषियों ने सबसे पहले पहेचानी और बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय हम सबको भैषज्य, आयुष्य और पौष्टिक मंत्र दिए । अथर्ववेद के प्रथम कांड के प्रथम अनुवाक् के अंत में आते हुए सूक्त चार, पाँच और छह, यह तीनों सूक्त 'अपोनप्त्रीय' इष्टि विषयक है । अपांनपात् या अपांनप्तृ ' जल का पौत्र' जल की बाष्प एवं बादल और इसमें से पैदा होती विद्युतरूप अग्नि की और जल की प्रशस्ति इस सूक्तो में है । सूक्त-४ पाने योग्य मातायें और मिलकर भोजन करनेहारी बहिनें (वा कुलस्त्रियाँ) मधु के साथ दूध को मिलाती हुईआ हिंसा न करने हारे यजमानों के सन्मार्गो से चलती है । वह जो (मातायें और बहिनें) समीप होकर सूर्य के प्रकाश में रहती है, और जिन (माताओं और बहिनों ) के साथ सूर्य का प्रकाश है । वह हमारे उत्तम मार्ग देने हारे वा हिंसा रहित कर्म कौ सिद्ध करें वा बढावें । जिस जल में से सूर्य की किरणें (वा गौयें आदि जीव वा भूमि प्रदेश) हमारे लिए देने वा लेने योग्य अन्न वा जल उत्पन्न करने को बहनेवाले समुद्र से पान करती है । उस उत्तम गुण वाले जल को आदर से में बुलाता हूँ। जल के बीच में रोग ★ संस्कृत विभाग, जी. डी. मोदी आर्ट्स कॉलेज, पालनपुर, (ब.कां.) उ.गु. अथर्ववेद में जलचिकित्सा For Private and Personal Use Only 81

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