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भाष्यके निर्माण की कथा
शब्दका जो अर्थ आज रूढ है हज़ार दो हजार वर्ष पहले भी उसका वही अर्थ था। यदि किसी शब्द का जो अर्थ आज रूढ है वह हज़ार दो हजार वर्ष पहले रूढ न हो तो उस समयके बने हुए ग्रन्थका अनुवाद करते हुए यदि हम उस शब्दका आजके रूढ अर्थ में अनुवाद करने लगें तो वह अवश्य ही उस ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारक प्रति अन्याय होगा।
उाहरणके लिये ‘पापं( ख )डो' शब्दको लीजिये, उसका रूढ अर्थ आजकल 'धून' अथवा दम्भी-कपटी-जैसा हो रहा है; परन्तु स्वामी समन्तभद्रके समय में इस शब्द का ऐसा अर्थ नहीं था। उस समय ‘पापं खंउयतीति पाखंडी' इस निरुक्तिके अनुसार पापके खण्डन करने के लिये प्रवृत्त हुए तपस्वी साधुओंके लिये यह शब्द आमतौर पर व्यवहत होता था-चाहे वे साधु स्वमतके हों या परमतके। और इसलिये स्वामी समन्तभद्रने अपने इस धर्मशास्त्रमें पापण्डिमृढता' का जो लक्षण दिया है उसका आशय इतना ही है कि, अमुक विशेषणोंसे विशिष्ट जो 'पाखंडी'
ॐ मूलाचार (अ०५) में “रत्तवड-चरग-तावसा-परिहत्तादीय-अण्ण
पासंडा' वाक्यके द्वारा रक्तपटादिक साधुणोंको अन्यमतके पाखण्डी बतलाया है, जिससे साफ ध्वनित है कि तब स्व (जैन) मतके तपस्वी साधु मी 'पाखण्डी' कहलाते थे। और इसका समर्थन श्रीकुन्दकुन्दके समयसारकी 'पाखण्डियलिंगाणि य गिहालिंगाणि य बहुप्पयाराणि' इत्यादि गाथा नं० ४३८ आदिसे भी होता है, जिनमें पाखण्डी लिङ्गको अनगार-साधुओं (निर्ग्रन्थादि-मुनियों) का लिङ्ग बतलाया है । साथ ही, सम्राट् खारबेलके शिलालेखसे भी होता है, जिसमें उसे 'सव्वपासंडपूजको' लिखा है। सग्रंथारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनांपुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डि-मोहनम् ।।