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भाष्यके निर्माणकी कथा स्वामी समन्तभद्रका 'समीचीन-धर्मशास्त्र', जो लोकमें रत्नकरण्ड, रत्नकरण्ड-उपासकाध्ययन तथा रत्नकरण्डश्रावकाचार नामसे अधिक प्रसिद्ध है, समन्तभद्रभारतीमें ही नहीं किन्तु समूचे जनसाहित्यमें अपना खास स्थान और महत्व रखता है। जैनियोंका कोई भी मन्दिर, मठ या शास्त्रभण्डार ऐसा नहीं होगा जिसमें इस ग्रन्थरत्नकी दो-चार दम-बीस प्रतियाँ न पाई जाती हो । पठन-पाठन भी इसका सर्वत्र बड़ी श्रद्धा-भक्तिके साथ होता है। अनेक भापात्मक कितने ही अनुवादों तथा टीका-टिप्पणोंसे यह भूपित हो चुका है । और जबसे मुद्रण-कलाको जैनसमाजने अपनाया है तबसे न जाने कितने संस्करण इस ग्रन्थके प्रकाशित हो चुके हैं । दिगम्बर समाजमें तो, जहाँ तक मुझे स्मरण है, यही ग्रन्थ प्रथम प्रकाशित हुआ था।
ग्रन्थके इन सब संस्करणों, टीका-टिप्पणों और अनुवादोंको देखते हुए भी, नहीं मालूम क्यों मेरा चित्त अर्सेसे सन्तोष नहीं पा रहा था, उसे ये सब इस धर्मशास्त्रके उतने अनुरूप नहीं जान पड़े जितने कि होने चाहिये थे। और इसलिये उसमें अर्से तक यह उधेड़-बुन चलती रही कि ऐसा कोई अनुवाद या भाष्य प्रस्तुत होना चाहिये जो मूल-ग्रन्थके मर्मका उद्घाटन और उसके पद-वाक्योंकी दृष्टिका ठीक स्पष्टीकरण करता हुआ अधिकसे अधिक उसके अनुरूप हो । इसी उधेड़-बुनके फलस्वरूप, समन्तभद्राश्रमके देहलीसे सरसावा आजाने पर, मैंने अनुवाद तथा व्याख्याके रूपमें इस पर एक भाष्य लिखनेका संकल्प किया था और तदनुसार भाष्यका लिखना प्रारम्भ भी कर दिया था; परन्तु