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समीचीन-धर्मशास्त्र
समय समयपर दूसरे अनेक ज़रूरी कामों तथा विघ्न-बाधाओंके
आ उपस्थित होने और भाष्यके योग्य यथेष्ट निराकुलता एवं अवकाश न मिल सकनेके कारण वह कार्य आगे नहीं बढ़ सका । कई वर्प तो वीर-सेवामन्दिरकी विल्डिङ्गके निर्माण-कार्यमें ऐसे चले गये कि उनमें साहित्यसेवाका प्रायः कोई खास काम नहीं बन सका-सारा दिमारा ही ईंट-चूने-मिट्टीका होरहा था। आखिर, २४ अप्रैल सन् १६३६ ( अक्षय-तृतीया ) को सरसावामें वीरसेवामन्दिरके उद्घाटनकी रस्म होजाने और उसमें अपनी लायब्ररीके व्यवस्थित किये जानेपर मेरा ध्यान फिरसे उस ओर गया और मैंने अनुवाद की मुविधाके लिये इस ग्रन्थके सम्पूर्ण शब्दोंका एक ऐसा कोश तैयार कराया जिससे यह मालूम होसके कि इस ग्रन्थका कौनसा शब्द इसी ग्रन्थमें तथा समन्तभद्रके दूसरे ग्रन्थों में कहाँ कहाँपर प्रयुक्त हुआ है, और फिर उसपरसे अर्थका यथार्थ निश्चय किया जा सके । क्योंकि मेरी यह धारणा है कि किसी भी ग्रन्थका यथार्थ अनुवाद प्रस्तुत करने के लिये यह जरूरी है कि उस ग्रन्थके जिस शब्दका जो अर्थ स्वयं प्रन्थकारने अन्यत्र ग्रहण किया हो उसे प्रकरणानुसार प्रथम ग्रहण करना चाहिये, बादको अथवा उसकी अनुपस्थिति में वह अर्थ लेना चाहिये जो उस ग्रन्थकारके निकटतया पूर्ववर्ती अथवा उत्तरवर्ती आचार्यादिके द्वारा गृहीत हुआ हो । ऐसी सावधानी रखनेपर ही हम अनुवादको यथार्थरूपमें अथवा यथार्थताके बहुत ही निकट रूपमें प्रस्तुत करनेके लिये समर्थ हो सकते हैं। अन्यथा ( उक्त सावधानी न रखने पर ) अनुवाद में ग्रन्थकारके प्रति अन्याय का होना सम्भव है; क्योंकि अनेक शब्दोंके अर्थ द्रव्य-क्षेत्र-कालभावके अथवा देश-कालादिकी परिस्थितियोंके अनुसार बदलते रहे हैं, और इसलिये सर्वथा यह नहीं कहा जा सकता कि जिस