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जैन गुणस्थान और योधिचर्याभूमि और दोनों में तो साम्य है वह इतना ही किबोधिलाभ वा मभ्यष्टि के बिना योगमाधनामें प्रवेश ही नहीं मिल सकता है। मियादृष्टिका त्याग ही बौद्ध हीनयान, महायान दोनोंकी प्रथम शर्त है । मिथ्याष्टिका त्याग ही जनमाधनाको भी प्रथम शन है। यही मम्याटि एक मी है ओ दोनोंके अनुमार जन्म जन्मान्तर में साथ रह सकती है। उसके बाद की जितनी भी योग्यता सम्यक्सयोधिके लिए बौद्धनि और कालज्ञानके लिए जाने मानी है उसके विषयों बौदोकी मान्यता है कि यह योग्यता कई जन्म-जन्मान्तरोम ग्राम हो सकती है उनका काम भी कर जन्म-जन्मान्तरोमें हो सकता है । जर कि जेनाका मानना है कि मम्यगिक मला जो भी योग्यता प्राप्त की हो, यदि अपने ध्येय तक पहुचने के पहले मृत्यु हो जाय तो यह समान हो जाती है नये जन्ममें नये सोरेसे उस योग्यताकी प्राप्तिक रिए प्रयत्न करना पड़ता है।
जन-चौद्ध दोनों की तत्त्व-व्यस्थाग भी भेद है। अतएव ध्यानका विषय भी भिन्न हो जाता है। इतना ही नहीं किन्तु नो में ध्यानकी पराकाष्टाम पस्नुका साक्षाकार होता है तो महायानी और हीनयानी दोनों बौदोंम वस्तु का प्रतिभास यानकी पराकाष्ठा में स्थान ही नहीं पाता।
__इस प्रक्रियामेदके कारण जन और बौद्धको मान्य साधनाके मोपानोमें मेद पड़ जाता है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि प्रथम कलेशावरण का पूर होमा और बाद में शानावरण या ज्ञेयावरणका दूर होना इस मान्यतामे जैन और बौद्धोंस ऐकमन्य है। भर्थात् यह कहा जा सकता है कि बिना क्लेशके दूर हुए विशुद्धतम ज्ञानका सभव नहीं-यह मान्यता दोनों की समान है और यहाँ आकर समग्र भारतीय योग परम्पराका भी ऐकमत्य है।