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कवि बंदिक जैन हरिवंश के आद्य प्रणेता ले० प० अमृतलाल मोहनलाल भोजक
अब तक के उपलब्ध जैन हरिवंशकथासाहित्य में स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में
सब से प्राचीन पुन्नाटसघीय आचार्य श्री जिनसेन कृत 'हरिवश' है। फिर भी इससे भी प्राचीन 'हरिवश' नामक ग्रन्थ के आद्य प्रणेता 'वैदिक' अथवा 'बंदिक' नामक कवि होने के तीन प्रमाण उपलब्ध होते हैं। उन तीन प्रमाणों में प्रथम प्रमाण ह वश के आद्य प्रणेता का निर्देश करता है और द्वितीय तथा तृतीय प्रमाण कमश बंदिक कवि के नाम को तथा बदिक कवि कृत हरिवश ग्रन्थ के अस्तित्वसमय की मर्यादा को सूचित करता है। ये तीनों प्रमाण इस प्रकार है
प्रथम प्रमाण - दाक्षिण्यचिह्न श्री उद्घोतनसूरिकृत कुवलयमाला कमायें पुरोगामी कवियों की नामावली में आने वाली गाथा -
बुह्यणसहस्सदय हरिव॑सु॒प्पत्तिकारयं पदम । वंदामि वंदियं वि हु हैरिवंसं चेव विमलपय ॥
१ - मुद्रित कुवलयमाला कथा में 'हरिवर्स' के स्थान में 'हरिवरिस' पठ है पाठभेद के रूप में 'हरिवंस' पाठ टिप्पणी में दिया है। यहा 'हरिवरिक प्रतिका है । 'प्राचीनतम प्रतियों के सभी पाठभेद मौलिक ही होते है' ऐकी सांगत्य और असांगत्य के लिए विचार करना यह भी प्रशोधन का एक पूज्यपाद आगमप्रभाकर मुनिषर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज के सहकार्यकर समय के कार्यकाल में अलग-अलग मन्थों के पाठभेदों के परीक्षण के अन् है कि प्राचीनतम प्रति की वाचना का प्राय स्वीकार करना चाहिए जह भी प्राचीनतम प्रति के बाद आत्यधिक समय के अन्दर में किया जहां पाठभेद भाते हैं वह वहां वे समग्र पाठभेद उन-उन प्रति बदले हैं या लेखक के अनवधान से हुए हैं ऐसा निर्णन करना उचित नहीं है, के समय में लिखाई गई प्रतियों के सामने प्राचीनतम आदर्श का कर नहीं था ऐसा विचार करना भी असंगत ही है। किसी किसी प्रन्थ में तो यह भी है के द्वारा रची हुई प्रन्थ की प्राथमिक मकल संपूर्ण संशोधित होकर तैयार होने के पूर्व मकलें हुई हैं और संशोधित होने के बाद भी उसकी नम हुई हैं। इन नों मकलों में प्रथम प्रकार की मकल की परम्परावाणी प्राचीनतम प्रवियों न हो प्रकार की नकल की परम्परावाली मात्र एक ही नकल (जिस समय उ प्रतिक में अर्षाचीन हो) मिलती हो, फिर भी उस अर्वाचीन प्रति के पाठों को म है । लिखने का सारथि इतना ही है कि अर्वाचीन प्रतियों के
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लिकरण विचारमा वह संशोधन की न्यूनता है इष्टि से भी पाठों का परीक्षण होना चाहिए, कि
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