Book Title: Sambodhi 1972 Vol 01
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 385
________________ किरातार्जुनीय में विमर्शसम्ध्यङ्गनिरूपण जहाँ कोष से, व्यसन से या विलोभन से वस्तुतत्त्व (फलप्राप्ति) के विषय में पर्यालोचन किया जाये और जहाँ गर्भसन्धि में उद्मिन्न बीजार्थ का सम्बन्ध दिखलाया जाये, उसे विमर्श अथवा अवमर्श सन्धि कहते हैं।' नियमानुसार इस सन्धि में प्रकरी नामक अर्थप्रकृति और नियताप्ति नामक कार्यावस्था होनी चाहिये । इस सन्धि में बीज का गर्म सन्धि की अपेक्षा अधिक विस्तार होता है और आवश्यकतानुसार किसी प्रासङ्गिक इतिवृत्त को कल्पना की जाती है जिसे प्रकरी कहते हैं । इस सन्धि मे 'यह कार्य अवश्य सिद्ध हो जायेगा' इस प्रकार का निश्चय अवश्य होता है तथा यही निश्चय विमर्श सन्धि का स्वरूप है । किरात के त्रयोदश सर्ग में उस स्थल पर जहाँ शङ्करप्रहित दूत अर्जुन के प्रति उत्तेजक वचनों का प्रयोग करता है-प्रकरी अर्थप्रकृति है। जब शिव और अर्जुन शूकरवेषधारी मूक दानव पर प्रहार करते हैं तब वह पञ्चत्व को प्राप्त हो जाता । जब अर्जुन उसके शरीर से अपना बाण निकाल कर ले आते हैं तब शक्कर द्वारा भेजा गया दूत अर्जुन से अपने स्वामी के बाण को लेने के लिए भर्जुन के प्रति उत्तेजक वचन प्रयुक्त करता है । यह प्रसङ्गागत एकदेशस्थित चरित है-अतः यह प्रकरी है और वह दूत प्रकरी-नायक है। किरात० के १२ ३ सर्ग से १८३ सर्ग के मारम्भ तक नियताप्ति अवस्था प्राप्त होती है ।' शिवाराधनार्थ अर्जुन के तप करने, अर्जुन के तप को सहन करने में असमर्थ सिद्ध तपस्वियों के शिव के निकट जाकर अर्जुन के तप के विषय में निवेदन करने, शिव के उन्हें मर्जुन का स्वरूप बतलाकर सान्त्वना प्रदान करने, अर्जुन को पराजित करने के लिए माये हुए शूकरवेषधारी मूक दानव को मारने के लिए किरातवेषधारी शिव के अर्जुन के आश्रम में अपनी गण-सेना के साथ आगमन, अर्जुन द्वारा उस दानव के दर्शन, शिव और भर्जुन द्वारा उस पर किये गये बाणप्रक्षेप, दान के पत्यु को प्राप्त करने पर अपने बाण को लेने के लिए शिव द्वारा भेजे गये पनेचर दूत के अर्जुन के प्रति कटूक्तिप्रयोग, शिव और अर्जुन के युद्ध और अन्त में अर्जुन के पराक्रम को देखकर शिव के प्रसन्न होने में नियताप्ति अवस्था है। प्रकरी और नियताप्ति के समन्वय से किरात० के १२ ३ सर्ग से १८ वें सर्ग के १५ वें श्लोक तक विमर्श सन्धि प्राप्त होती है। शिवदूत के कतिप्रयोग तथा , दशरूपक-क्रोधेमावमृशेयत्र व्यसमावा विलोभमाद । गर्भनिर्मिषमीलार्थ सोऽवमर्श इति स्मृत ॥१२-१३ २ किरात०-१२11-141१५

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