Book Title: Sambodhi 1972 Vol 01
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 390
________________ सुषमा कुलश्रेष्ठ घुति-ना० शा० में इस मग का उल्लेख द्रुति नाम से हुआ है । किसी पात्र का तर्जन तथा उद्वेजन करना द्रुति या धुति कहलाता है । किरात के चतुर्दश सर्ग के २५ वें श्लोक में यह अंग प्राप्त होता है जहाँ अर्जुन शिवप्रहित दूत से कहते हैं- 'यदि किरातपति बाण लेने के लिए आयेंगे तो उसी दशा को प्राप्त होंगे जिस दशा को सर्प की मणि लेने की इच्छा करने वाला प्राप्त होता है।' यहाँ अर्जुन के वचन में किरातपति शिव का तर्जन होने से घुति नामक विमर्शाङ्ग है । प्रसा--जहाँ पूज्य व्यक्किमो (गुरुमओं), माता, पिता आदि का सकीर्तन हो वहाँ प्रसग विमर्शाङ्ग होता है । किरात० के अष्टादश सर्ग के २३ ३ से २८ ३ श्लोक तक, ३० ३, ३१ ३, ३४ वें तथा ३६ वें श्लोकों में अर्जुन कृत शिवसंकीर्तन होने से प्रसग विमर्शाङ्ग है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है-(अर्जुन शिव की स्तुति करते हुए कहते हैं) 'जो तीर्थ बिना सुदूर यात्रा के उपलब्ध होता है, जो इसी संसार में फल प्रदान करता है और जो ससारसमुद्र से परे अर्थात् मोक्ष का स्थान है तथा समस्त ममिलाषाओं का पूरक है-ऐसा तीर्थ स्मरणमात्र से उपलभ्य मापके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है ।" छलन- यह सन्ध्यग ना० शा० और सा० द० में प्राप्त नहीं होता । दशरूपक के अनुसार जहाँ कोई पात्र किसी दूसरे की अवज्ञा करे, वहाँ छलन भग होता है। चतुर्दश सर्ग के १९ वें श्लोक में यह मग प्राप्त होता है । अर्जुन शिवदूत से कहते हैं-'तुम्हारे राजा (किरातवेषधारी शिव) असत्य का आश्रय कर बलात् अत्यन्त विपरीत फलोत्पादक मनोरथ की सिद्धि की कामना करते हैं । दुर्नीति की भीषणता से परिचित पुरुष की भी बुद्धि विनाशकाल में व्यामोहोत्पा १ मा. शा० - वाक्यमाघर्षणकृत युतिस्तज्जैरुदाहृतम् ।२१।९३ दारूपक -- तर्जनोजने थुति १] सा०० -तमोहेजने प्रोक्ता प्रति ।६।१०१ २ मा पा.-- प्रसंगश्चेव विझयो गुरुणी परिकीर्तनम् ।२१।९२ दशस्मक-- गुरुकीर्तन प्रसंग 11५६ सा.द. -- प्रसंगो गुरुकीतनम् 11108 किरात -- प्राण्येत यविह दूरमगत्वा यत्फलस्यपरलोकगताय । तीर्थमस्ति म भवार्णवबाम सार्वकाभिकमुवे भवतस्तर् ॥१८२५ १. समक-- नं चावमाननम् १९६

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