Book Title: Sambodhi 1972 Vol 01
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 389
________________ किरातार्जुनीय में विमर्धकाभ्यङ्गनिरूपण महान् पराक्रमशाली व्यक्ति अत्यन्त दुःखितो को पीड़ित नहीं करते। वहाँ प्रथमगण के पलायन का वर्णन होने से विद्रव अग है । द्रव - दशरूपक के अनुसार जहाँ गुरुआ (बड़े व्यक्तियों) का तिरस्कार हो वहाँ द्रव विमर्शात होता है। सा० द० के अनुसार शोक अथवा मावेग के कारण गुरुमों के अतिक्रम को द्रव कहते हैं। ना० शा ० के अनुसार गुरुओ का मतिक्रम अभिद्रव है । वहाँ इस अग को द्रव के स्थान पर अभिद्रव कहा गया है। किरात ० के द्वितीय सर्ग के छठे तथा सातवें श्लोकों में यह अंग प्राप्त होता है जहाँ भीम युधिष्ठिर से कहते हैं- 'आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चारों विधाओं में सत् और असत् की विवेचना करती हुई आपकी बुद्धि स्वाति प्राप्त कर चुकी है, फिर क्या कारण है कि वही बुद्धि विपर्यय को प्राप्त होकर पंक ( दलदल में फँसी हुई हथिनी की भाँति कराह रही है। शत्रुओं के द्वारा व्यापके इस दुरवस्था को प्राप्त होने पर आपका पुरुषार्थ जिसकी प्रशंसा देवगण करते हैं, विफल, हो रहा है, इससे बढ़कर कष्ट और क्या हो सकता है'। 'वहाँ भीम ने शोक तथा आवेग के कारण गुरु युधिष्टिर का अतिक्रम किया है । यहाँ द्रव नामक विमर्शान है। शक्ति — विशेष के शमन को शक्ति कहते हैं।' इस सन्ध्य का उदाहरण किरात ० में प्राप्त नहीं होता । १. किरात ० - अथ भूतानि वार्त्रघ्नरेभ्यस्तत्र तत्र । २ दशरूपक वो गुरुतिरस्कृतिः 11४५ ३ सा० वा० ० भा० स० ५ फिर रात ० मेसे दिश परित्यकमहेष्वासा च सा चमूः त्रासविद्मं यशश्चैतान् मन्दमेवान्वानः । नातिपीडयितुं मग्नानिच्छन्ति हि महा १५११६ - ६ मा० शा० काकपक प्रा० द० • द्रषो गुरूष्यति कान्ति. शोकादिसम्म ६१०३ •गुरुव्यतिक्रमो यस्तु विज्ञेयः २१९१ - चतसृष्वपि ते बिकिनी टूप ! विवाणु नि। कथमेत्य मतिविनय करियावदति । विधुरं किमत परं परैरवगीतां गमिते दयनियम् । Heater सुरैरपि त्वगि सम्मानित पीयम् १६-० विशेषोपमो मस्तु सा सरि परिकीर्तिता । २११६१ विरोधसमन 1919६ ग्रति पुनर्भवेदविरोगन ||१०१ ११ - --

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