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किरातार्जुनीय में विमर्शसभ्यङ्गनिरूपण २ ना० शा० का द्रुति नामक अङ्ग सा. द. और दशरूपक पति नामक अङ्ग है।
३. ना० शा०का अभिदव नामक अङ्ग दशरूपक का द्रव नामक महो । ४ ना० शा० का निषेध नामक मङ्ग सा० द० का प्रतिषेध नामक मह है। ५ ना० शा० का सादन नामक अङ्ग सा० द. का अदन नामक भगी।
६. ना. शा. और सा० द० के खेद, निषेध (प्रतिपेथ) और सादन (छादन) दशरूपक में नहीं मिलते हैं।
७. ना. शा. और सा० द० में दशरूपक के विद्रव, उखन और विक्कन मंग नहीं हैं।
८. तीनों ग्रन्थों में विमर्श सन्धि के १० मग समान है।
९. दशरूपक का विद्रव नामक विमर्श सन्ध्यङ्ग ना० शा• और मा. में नहीं है किन्तु विद्रव नामक गर्भसन्ध्यङ्ग का उल्लेख ना० शा और मा.. में है। वहाँ का विदव दशरूपक के संभ्रम नामक गर्भसन्ध्या के समान है।
१०. दशरूपक और सा० द० के विरोधन नामक मा की परिभाषा में अन्तर है।
११. दशरूपक और सा० द० के व्यवसाय तथा प्रोपना नामको की परिभाषामों में भी थोड़ा अन्तर है।
विमर्श सन्धि के इन मङ्गों में से अधिकाश का सविनेश किरात में प्राप्त होता है जिसका उल्लेख हम दशरूपक में उल्लिखित विमर्शसमतों के समानुसार करेंगे।
अपवाद-जहाँ किसी पात्र के दोषों का वर्णन किया बाये यहाँ अपवाद नामक विमान होता है। किरात के चतुर्दश सर्ग के १२, २१ और २२से श्लोकों में यह अंग प्राप्त होता है । एक स्थल पर अर्जुन शिवाहित दस से कहते हैं-"दुर्जन सुजन के गुणों को अवगुण्ठित कर उसके स्थान पर अवगुण के मारोप 1. मा. शाल-दोषप्रयापन यासाए मोऽधार प्रallia १९.
दाम्पक-दोषप्रयापवादः स्यात् 111४५ मा० १०-दोषप्रल्यापवादः स्वाद 11.१