________________
जैन गुणस्थान और बोधिचर्याभूमि
है। जप कि निर्वाग प्राप्त करनेवालों को नैयामिक बोधिचित्तकी मन्ना दी है। इस कल्पमान मल अनुभव है। लोकसं ठेखा जाता है कि बीजमें गेम्पादनकी योग्यता सोहै किन्तु कारण मामग्रीको प्राप्ति न होने से अकुर होता नहीं है । एमी ही बात दुर्भय मौर भनेर्यानिक के लिए कही जा सकती है।
जैनौके अनुसार भव्य जप अपना ध्येय सिद्ध कर लेता है तब वह केवला होकर निर्वान प्राप्त कर लेता है। ऐसे केवली के भी दो भेद किए गए हैं। मान्य केवलरी और साधकर । सामान्य केवली धर्मशासनकी स्थापना नहीं करता अब कि तीर्थकर धर्मशासम की स्थापना करता है। हीनयानी बौद्धो में भी अहंत या प्रत्येकवुद्ध और युद्ध ऐसे दो प्रकार की कम्पना है। महंत धर्मचक्रका प्रवर्तन नहीं करता और बुद्ध धर्मयकका प्रपतन करता है। अनौने तीर्थ कर को- महंत भी कहा है । महायानी बौद्धोंने युद्धप्राप्ति पर भार न देकर बोधिसत्वको चर्या पर भार दिया और यह आदर्श उपस्थित किया कि बोधिसत्त्व सम्यक् सबुद होना चाहता है किन्तु जब तक ससारमें सभी प्राणीमाको मुक्ति नहीं हो जाती तब तक यह अपना निवांग मही चाहता । इस प्रकार जैनतीर्थकर या हीनयानी के अहंत की अपेक्षा महायानी धर्ममें शेषि पत्वकी ही प्रतिष्ठा को बढाया। और भाग्रह रखाकि बोधिचर्याका भादर्श केवल अपना मोक्ष ही नहीं होना चाहिए किन्तु समग्र प्राणीको मुक्ति होना चाहिए। यह मतव्य होनयान मोर जैन दोनों के भादसे आगे बढ़ गया। जनों के तीर्थकर और हीनयान के बुद्ध- ये दोनों अपने मोक्षको महत्त्व देते हैं, शासमको स्थापना प्रासगिक है । जैन संमत अन्य सामान्य केवरीया हीमयानके प्रत्येक युद्ध शासनको स्थापना मही करते यानि मोक्ष मार्गका उपदेश नहीं देते
और तीर्थकर या युद्ध मोक्षमार्ग का उपदेश देते है इस मेदका यही कारण माना गया है खाधमाके प्ररम्भमें अपने और परके कल्याण की दृष्टि होमा या न होना यह है । किन्तु होमयानी युद्ध या जैन तीर्थकर अपना निर्वाण स्थगित नहीं करते या भगित करनेकी भावना भी नहीं रखते किन्तु महायानोका बोधिसत्त्व अपने निर्वाणके लिए उतावला है ही महाँ । उसने तो समप्र प्राणीकी मुक्ति अपना ध्येय बना लिया है। यही दोनों के आदर्श मेद उपस्थित करता है।
जैम तीर्थंकर उपवेशक अवश्य है। किन्तु अन्यके मोक्ष के लिए क्रियाशील मही। हीमयानी बुद्धकी भी यही स्थिति है। जब कि बोधिसत्त्व केवल उपदेश देकर संतुष्ट नही हो जाता प्राणिमौके कष्टों का निवारण अपने प्राण गँवा कर भी करना बोधिसत्वको इट है। और सम्यक्सबुद्ध को भी।
बोधिसत्त्वकी चमें और जैन तीर्थकरकी चर्याम इस दृष्टिमेदके कारण मेव देवा का सकता है। हीमयानी बुद्धके पूर्वजन्मकी कथाओंमें बोधिसत्वकी वर्या अर्थात् पारमितामोंकी प्राप्तिका जो मिरूपण है, वह महायानी बौधिसत्त्वके आदर्श का प्रतिफल है किन्तु हीमयानी रात्र जो चित्र मूलपिटफसे उपस्थित होता है उसमें जातककथासे फलित होनेवाला पुखर्जीवन दिखाई नहीं देता । किन्तु जैनतीर्थंकर के समान उपदेशक प्रधान जीवन दिखाई देता है, बोधिसत्त्वका आदर्श उससे उपस्थित नहीं होता। अर्थात् यह हम कह सकते हैं कि दु खनियारण का मार्ग दिखाते है किन्तु निवारण में सक्रिय नहीं। किन्तु पोधिसत्य या सम्यकसदुदष