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दलसुख मालवणिया
मायाममत भादो सक्रिय व्यक्ति उपस्थित करता है। वैसी सक्रिय व्यक्ति बुद्धकी पूर्वकाल देखी जाती है, पालिपिकर्मे अन्यत्र नहीं । यह जानका महायान के प्रभावका यानक है।
जैन तीर्थकर और हनयानी घ दोनों अपने क्लेश और बजा के निवारण के लिए मनशल है पिरभी जातकों के वृद्ध और जैमोंके द्वारा तीर्थकrवरित म वर्णित पूर्वभवा को कमा द्वारा उपस्थित तीर्थंकर में भेद दिखाई देता है। पालिपिटकर्म मूल्मे जिस प्रकार बुद्धकी दर्शन है वह और जैन आगम गूल तथा वादके माहित्यमं वर्णित पूर्वभवों का साधन का वर्णन एक जैसा कहा सकता है। दोनोम अपने क्लेश और अज्ञान निवारणका प्रयत्न स्वाद है। जननि बाद के साहित्य में बोधिमत्त्वका मार्ग उपस्थित होनेपर भी उमेी नहीं किया और अपने मोक्षके महत्त्वको कम करके बोधिसत्त्व के सकिय मर्ग का नहीं अपनाया । जब कि बौद्धोंने अपने मोक्ष महत्त्वके साथ परफे तु स्वनिवारणके efer को अपनाया राय और तदनुसार ही जातकों की रचना की । सारांश यह है कि जियानो पौदने महायानके आदर्श को युद्ध के पूर्वजन्म की कथाओं में ले लिया किन्तु बुद्धअबको कथा में उसकी कोई असर होने नहीं दो । महायान में तो बुद्धचरितकी अपेना घोषि
का हो चरित बुद्धचरित का स्थान ले लेता है । और बुद्ध को तो लौकिककी अपेक्षा अलौकिक हो बना दिया है। और अवतारवाद को प्रश्रय दे दिया है।
जनतीकरके जो पूर्वभवों के चरित हैं उनमें अपने ही क्लेशके निवारणका प्रयत्न स्पष्ट है किन्तु जो विशेषता देखी जाती है वह दूसरी ही है। बौद्धोंने चित्तका विश्लेषण करके अभिधर्म लिया किन्तु जनाने कर्मका विश्लेषण किया और उसका एक स्वतंत्र शास्त्र बना लिया और कर्मशास्त्र भू सिद्धान्त जैसे कर्म वैसे फल को तीर्थंकर चरित द्वारा उपस्थित किया । मत्वक ऐसा व्यक्ति है जो अपने गुर्गों का प्रदर्शन करता है किन्तु जैन तीर्थकरके पूर्वभवकी कथा तो ऐसे व्यक्तिको उपस्थित करती है जो सामान्य मानवी है जिसमें गुणदोत्रदान हैं। और जो अपने दोषों के कारण मानाभव करता है और अपने कर्मका फल भोगता है। लाभ यह है कि पूर्वभवका वर्णन इस दृष्टिको समक्ष रखकर किया गया है कि छोटा हो या वहा वह अपने कर्मका फल अवश्य पाता है। अतएव साधकको चाहिए कि दूरे कर्मा से बचे, अकर्म न हो सके तो सत्कर्म करें किन्तु बूरे कर्म तो करे नहीं। किसी गुण करके पराकाष्टा तक पहुचाना, पारमिता प्राप्त करलेना - यह आतक कथाओंका रहस्य कहा जा सकता है तो तीर्थंकरके पूर्वभव का इतना ही रहस्य है कि तीर्थंकरको भी अपने कर्मके
भोगने पड़ते हैं। किसी खास विशेषगुणको उत्तरोत्तरवृद्धि और पराकाष्ठा कैसे होती हैवह दिखाया तीर्थकर चरितके पूर्वभवोंका उद्देश फलित नहीं होता । यही कारण है कि बोधिचर्या और सोच में भी मेद हो गया। नोंने मrat उन्नतिका म कर्मके क्षयके कमसे affs है कि बोधिचर्या में गुणद्धिकी और ध्यान केन्द्रित है । किन्तु अन्तमें जाकर आवरण निगकरण दोनों में समानरूपसे माना गया है।
जैन योगमाचना और बौद्ध योगसाधना में जो मौलिक भेद है, उसका विचार करना जरूरी है। होनयनकी साधना और महायानको साधना में भी भेद है। योगसाधना में जैन