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मनुष्य की संकल्प-शक्ति
इस विशाल विश्व में सर्वाधिक श्रेष्ठ वस्तु क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर तभी दिया जा सकता है, जबकि इस पर पर्याप्त चिन्तन और मनन कर लिया जाए । इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता, कि इस सृष्टि का सर्वाधिक श्रेष्ठ एवं सर्वाधिक ज्येष्ठ प्राणवान तत्त्व मनुष्य ही है । आज तक के इतिहास में धर्म और दर्शन की, संस्कृति और साहित्य की तथा कला और विज्ञान की, जो कुछ खोज हुई है, उसका मूल आधार मनुष्य ही है । मनुष्य के लिए ही इन सबका उपयोग और प्रयोग किया जाता है । मानव-शून्य इस विशाल सृष्टि में सब कुछ रहते हुए भी, कुछ नहीं रह सकेगा । मानवतावादी धर्म, मानवतावादी दर्शन और मानवतावादी संस्कृति का यह अटल विश्वास है, कि इस समग्र विश्व के विकास का मूल केन्द्र मानव-जीवन ही है । विश्व बड़ा है, जीवन विश्व से बड़ा है, परन्तु मनुष्य जीवन से भी बड़ा है । मनुष्य वह है, जो अपने मन की शक्ति का सम्राट हो, संसार की समग्र शक्ति जिसके आगे नत मस्तक हो । एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है कि, Every man is a volume, if you know how to read him. प्रत्येक मनुष्य अपने आप में एक विशाल ग्रन्थ है, यदि आप उसे पढ़ने की कला जानते हों, तो ।
मानव-जीवन की पवित्रता और श्रेष्ठता, मानव-जीवन का वह पक्ष है, जिसके लिए भारत के महान आचार्य, संत और विद्वानों ने अपनी-अपनी वाणी में और अपने-अपने ग्रन्थों में बहुत कुछ गुणगान किया है और बहुत कुछ उस सम्बन्ध में लिखा भी है । मानव की प्रसुप्त आत्मा को प्रबुद्ध करने के लिए, उन्होंने अपने चिन्तन और मनन के द्वारा, बहुत कुछ प्रेरणा प्रदान की है । भारतीय चिन्तक मनुष्य के जीवन के सम्बन्ध में बहुत आशावादी हैं । उनका कहना है, कि धर्म और दर्शन की साधना का एक मात्र लक्ष्य-बिन्दु मानव-जीवन ही है । इससे बढ़कर अन्य किसी जीवन को उन्होंने श्रेष्ठ नहीं माना । पशु और पक्षी ही नहीं, स्वर्ग लोक के देवों के जीवन को भी उन्होंने मानव-जीवन से हीन कोटि का माना
भारतीय चिन्तक मनुष्य को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, कि मनुष्य ! तू अपनी श्रेष्ठता के लिए जो आकाश की ओर हाथ उठाए भिक्षा माँग
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