Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 17
________________ रोगिमृत्युविज्ञाने ___श्याम-काला, ताम्र-ताँबे का रँग, हरित्-हरा, नील-नीला, शुक्लश्वेत रंग, जो कि पूर्वावस्था में उत्पन्न न हों, किन्तु रोगावस्था में उत्पन्न हो जाँय तो वे रंग, रोगी की मृत्यु को शीघ्र होने वाली कहते हैं । यही रँगों का उत्पन्न होना अरिष्ट है, इसकी स्वस्वरूपावस्था में लाने की कोई चिकित्सा नहीं है ।। १५ ॥ वामदक्षिणभागेन पृष्ठवनोविभागतः। ऊर्ध्वाधरविभागेन वर्णः संजायते क्वचित् ॥ १६ ॥ कभी किसी रोगी के देह के वामभाग में और किसी के दक्षिण भाग में, एवं किसी के पृष्ठ भाग में, अर्थात् समस्त पृष्ठ में अथवा समस्त वक्षःस्थल में, एवम् ऊर्ध्व भाग में अथवा अधोभाग में मृत्युसूचक ये अरिष्ट-वर्ण उत्पन्न हो जाते हैं, इतना ध्यान रखना चाहिये कि सभी अरिष्ट सभी रोगी के उत्पन्न नहीं होते हैं, किंतु कभी किसी के कोई और कभी किसी के कोई ॥ १६ ॥ .. अर्धे मुखे समस्ते वा पूर्णापूर्णशरीरयोः। अनिमित्तं समुत्पन्नो हन्ति संवत्सरावधेः ॥ १७॥ एवम् आधे मुख में समस्त मुख में अथवा संपूर्ण शरीर में यद्वा आधे शरीर में विना किसी कारण के उत्पन्न हुये पूर्वोक्त वर्ण, एक वर्ष के अन्तर्गत मृत्यु को सूचित करते हैं ॥ १७ ॥ शुक्लं कर्पूरसदृशं श्यामं वा भ्रमरोपमम् । पाणिपादं मुखं यस्य स्यात्तमाशु त्यजेद् भिषक् ॥ १८॥ जिस रोगी के हाथ-पैर अथवा मुख कपूर के सदृश शुक्ल हो जॉय, अथवा भौरों के सदृश नितान्त काले हो जाँय उस रोगी को मरणासन्न समझकर वैद्य शीघ्र छोड़ दे, उसकी चिकित्सा न करे । प्रायः श्यामता विसूचिका में और शुक्लिमा सन्निपातादिक शीघ्रघातक रोगों में आ जाती है ॥ १८ ॥

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