Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 43
________________ ३४ रोगिमृत्युविज्ञाने उचमागेषु जायन्ते यस्य स्वप्ने लतादयः । सनीडाः पक्षिणश्चापि स मौढ्यं प्राप्नुयाद् ध्रुवम् ॥२५॥ स्वप्न में जिसके उत्तमाङ्गों में अर्थात् शिर अथवा वक्षःस्थल में लता इत्यादिक उत्पन्न हो और उस लता में घोसला सहित पक्षी. विद्यमान हों, ऐसा स्वप्न देखने वाला निश्चय से मूढ़ता को-विक्षिप्तता पागलपन को प्राप्त होगा ॥ २४ ॥ काकोलूकश्वगृध्रायः स्त्रीभिश्चाण्डालपुक्कसैः।। भूतप्रेतपिशाचैर्यो वृतः स्वप्ने स नंक्ष्यति ॥२५॥ काक-कौआ, उलूक-उल्लू पक्षी, श्व-कुत्ता, गृधू-गीध, इत्यादिकों से अथवा स्त्रियों से, अथवा चाण्डाल, या पुक्कस-मीणा, वागरी, वरडा शासी, कञ्जर आदि नीच जाति से युक्त, अथवा भूत प्रेत पिशाच आदि से युक्त-पूर्वोक्तों से मिला हुआ हआ हाथ से हाथ पकड़े हुये स्वप्न में जो अपने को देखता है वह रोगी उसी रोग से, स्वस्थ किसी रोग से शीघ्र ही नाश को प्राप्त होगा, अर्थात् जल्द मरेगा॥२५॥ लतावजलकर्मारैस्तृणपाशैश्च कण्टकैः । स्वप्ने संकटमापन्नो यः स नाशमवाप्स्यति ।। २६॥ जो स्वप्न में लता-किसी वनस्पति की बेलि से अथवा बञ्जुलवेत, या कर्मार-वाँसों से, या तृण-घास के ढेर समूह आदि से अथवा पाश-फसरी तथा कण्टक आदि से आपत्ति में पड़ जाय वह निश्चित अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा ॥ २६ ॥ लतादिष च यः स्वप्ने प्रमुह्येच पतेच्च वा । यद्वा लगेदातुरोऽसौ मृत्युं वा दुःखमाप्नुयात्।। २७॥ जो स्वप्न में लता इत्यादिकों में फँसकर घबड़ा जाय अथवा गिर जाय अथवा निश्चेष्ट होकर उन्हीं में लग जाय वह रोगी मृत्यु

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