Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 56
________________ ४७ चतुर्थोऽध्यायः विडमूत्रं अथिलं यस्य श्वसनश्चातिवर्धते । निरुप्मो जठरी चैव नाधिकं स तु जीवति ॥ ११ ॥ जिसका विड् मूत्र ग्रथिल हो जाय अर्थात् मल मूत्र में गाँठ पड़ जाय और वायु अधिक बढ़ जाय, चलते-फिरते भी श्वास अधिक आवे, ऊष्मा रहित हो अर्थात् शरीर ठंढा रहे और पेट बढ़ जाय, सदा उदर फूला बना रहे, वह अधिक समय तक नहीं जीयेगा, जैसे उपद्रव न्यूनाधिक होंगे तदनुकूल मास पक्ष दिन जीवेगा ॥११॥ दुर्बलं यं नरं तृष्णाऽप्यानाहश्चातिबाधते । भिषक तं न चिकित्सेत यदयं मरणोन्मुखः ॥ १२ ॥ जिस रुग्ण दुर्बल मनुष्य को पिपासा अत्यधिक लगे और आनाह उदर अत्यधिक फूल जाय, अध्मान-अफरा बढ़ता हुआ व्याकुलता उत्पन्न करे, उत्तम वैद्य उस रोगी की चिकित्सा न करे, क्योंकि वह मरणोन्मुख है। उसी दिन में यदि दोष कम है तो तीन दिन में अवश्य मर जायगा ॥ १२ ॥ पौर्वाह्निको ज्वरो यस्य कासः शष्कश्च दारुणः । अवलो मांसशन्यस्च तं भिषक् परिवर्जयेत् ॥ १३ । जिसको दिन के पूर्व भाग में ज्वर आता है और ख श्क-सूखी कठोर उग्र अत्यधिक खांसी आती है, बल रहित-नितान्त निर्बल और मांस रहित, अस्थिचर्मावशिष्ट उस रोगी को वैद्य छोड़ दे, उसकी चिकित्सा न करे, क्यों कि वह असाध्य मरणोन्मुख है ॥ १३ ॥ अपराह ज्वरस्तूग्रः श्लेष्मकासश्च दारुणः।। दुर्बलो बलहीनश्च यः स प्रेतसमो मतः ॥ ४ ॥१ जिस रोगी को अपराह्न में दिन के उत्तर भाग में उग्र ज्वर आता अर्थात् एक सौ चार डिग्री अथवा इससे भी अधिक आता हो और खांसी और श्लेष्मा अत्यधिक घोर रूप से हो, एवं दुर्बल मांस रहित

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