Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ पञ्चमोऽध्यायः ६३ रसादिक से चिकित्सा करे। अरिष्ट के उत्पन्न न होने से सर्वथा अचिकित्स्य नहीं हैं ॥ ३१ ॥ रेचनाद् विगतानाहो महाभिः समर्दितः । नोरक्तः पुनराम्मानी यः स वाढं प्रक्ष्यति ॥ ३२॥ यदि रेचन से आनाह-अफारा अच्छा हो जाय, परन्तु पिपासा अत्यधिक हो जाय, और नीरक्त-रुधिर रहित नितान्त दुर्बल, अस्थि चर्मावशिष्ट हो और यदि पुनः आध्मान हो जाय तो वह निश्चय से मृत्यु को प्राप्त होगा और यदि पुनः आध्मान नहीं होता है तो चिकित्सा करते हुए बल रुधिर आदि अवश्य आ जायगा, किन्तु द्वितीयावृत्त आध्मान ही घातक अरिष्ट है ॥ ३२ ॥ कण्ठोरसोर्मुखस्यापि विबद्धत्वाच यो नरः। पेयं पातुं न शक्नोति स तु वाढं मरिष्यति ॥ ३३॥ जो रोगी या नीरोगी कण्ठ और उरस्-छाती तथा मुख के विबद्ध होने से पेय भी नहीं पी सकता, वह निश्चय ही मर जायगा, क्योंकि प्राण पोषक कोई पदार्थ नहीं पहुँचता ॥ ३३ ॥ स्वरस्य दुर्बलीमा क्षयं च बलवर्णयोः । अकस्माद् रोगवृद्धिं च विलोक्य गदिनं त्यजेत् ॥ ३४॥ जिसका स्वर दुर्बल हो गया हो अर्थात् झीनी आवाज हो और बल तथा चेष्टा शरीर के स्वरूप आदि का क्षय-नाश हो गया हो, और अकस्मात्-विशेष कारण के बिना सहसा रोग की वृद्धि देख कर उसी रोगी को असाध्य मरण समझ कर छोड़ दे ॥ ३४ ॥ ऊवश्वासी गतोष्मा च शुलोपहतवंक्षणः। दुःखं चाप्यभिगच्छन् यस्तं मिषक परिवर्जयेत् ॥ ३५॥ ऊर्ध्वश्वासी-जिसे ऊर्ध्वश्वास उत्पन्न हो गया हो और शरीर में ऊष्मा नहीं हो अर्थात् शरीर ठंढा हो गया हो, तथा वङ क्षण-ऊरुओं

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106