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सप्तमोऽध्यायः संभ्रमोऽतिप्रलापश्च भेदोऽस्थ्नामतिदारुणः । त्रयोऽपि युगपद् यस्य जायन्ते स मृतोपमः ॥ १३ ॥ संभम-घबराहट अथवा भ्रान्ति अन्य में अन्य प्रकार का ज्ञान और अत्यन्त प्रलाप, निरर्थक बहुत बकना तथा देह की हड्डियों में अत्यन्त पीड़ा, हड़फूटन मालूम हो कि हड्डियाँ देह की फूट रही हैं, ये तीनों युगपत् साथ ही जिसके उत्पन्न हो जायँ वह मृतक समान है अर्थात् सर्वथा असाध्य हैं, वह थोड़े समय तक ठहरेगा ॥१३॥
पाणिपादं मुखं चापि यस्य शुष्यन्ति सर्वतः । उच्छ्यन्तेऽथवा नूनं मासमेव स जीवति ॥ १४ ॥ जिसके हाथ पैर और मुख नितान्त सूख जाँय अथवा सूज जाँय वह केवल एक मास जियेगा । यदि तीनों नहीं सूजे हों दो ही सूजे हों तो अधिक समय तक जी सकता है; परन्तु छ महीना से अधिक. कथमपि नहीं ठहरेगा ॥ १४ ।।
मस्तके वा ललाटे वा वस्तौ यस्यातिमेचका। द्वितायाचन्द्रकुटिला रेखा स्यात्स न जीवति ॥ १५ ॥
मस्तक में अथवा ललाट-माथे में या वस्ति-नाभि के अघोभाग पेडू में द्वितीयाचन्द्र के सदृश श्यामवर्ण टेढ़ी हँसिया के समान रेखा जिसके उत्पन्न हो जायँ, वह छ महीना से अधिक नीरोग और महीना से अधिक रोगी नहीं जियेगा ॥ १५॥
प्रवालकान्तिसदृशो देहे यस्य मसूरिकाः। उत्पद्य चाश नश्यन्ति सोऽचिरादेव नंक्ष्यति ॥ १६ ॥ जिसके शरीर में प्रवाल के सदृश मसूरिका-मसूर दाल के समान लाल लाल दाना पड़ जायँ और वे पड़कर जल्दी ही नष्ट हो जायँ तो वह एक मास से अधिक समय तक नहीं जियेगा ॥१६॥