Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 89
________________ अथ अष्टमोऽध्यायः । दूतस्य लक्षणेनापि व्याधिमन्तं विभावयेत् । साध्यः किं वाऽप्यसाध्योऽयमित्यालोच्य चरेद् गतिम् ॥ १॥ अब बुलाने के लिये आये हुये दूत के लक्षण से भी रोगी का विचार करे, क्या जिस रोगी की औषध करने को जाना है, वह साध्य है अच्छा हो जायगा अथवा असाध्य है- अच्छा नहीं होगा, यह वक्ष्यमाण दूत के लक्षणों से निश्चय करके रोगी के यहाँ जाय ।। १ । नग्नोऽथवा मुक्तकेशो रुदन् शान्तिविवर्जितः । अभ्यागतो भवेद् दूतो न गन्तुं यततां भिषक् ॥ २ ॥ नग्न-देह पर वस्त्र नहीं पहिरे हुये, अथवा मुक्तकेश जिसके शिर के बड़े-बड़े बाल ख ुले हों, अर्थात् स्त्रियों के समान बड़े २ बाल हों परन्तु वे ख ुले हुये लटकते जिसके हों, यद्वा शान्ति रहित रोते हुये, इस प्रकार का यदि दूत आया हो तो उसके साथ नहीं जाय । रोगी को असाध्य समझकर परित्याग कर दे, अथवा न जाने को अपनी आवश्यकता दिखा दे, ॥ २ ॥ दूता यान्ति ये वैद्य विन्दत्यपि च भिन्दति । सुप्ते वा नैव गच्छेत्तु तत्प्रभोरन्तिकं भिषक् ॥ ३ ॥ वैद्य के किसी वस्तु के काटते हुये, अथवा फाड़ते हुये यद्वा सोते ये यदि दूत वैद्य को लेने के लिये आवे तो, वैद्य दूत के मालिक के पास औषधार्थ - चिकित्सा करने नहीं जाय, क्योंकि वह रोगी असाध्य है ।। ३ ।। निर्वपत्यपि पिण्डानि पितृभ्यस्तु चिकित्सके । वह्निं जुह्वति वा यान्ति दूता ये तान् विसर्जयेत् ॥ ४ ॥

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