Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ ६२ रोगिमृत्युविज्ञाने सतशकुने वैद्य-कर्तव्यमपि दर्शये । येनादरं धनं कीर्ति लभतेऽसौ भिषग्वरः ।। १४ ॥ अब उत्तम दूत, शकुन का, तथा वैद्य के कर्तव्य का वर्णन करता हूँ जिसके ज्ञान से वह उत्तम वैद्य होता हुआ आदर धन और कीर्ति यश को प्राप्त होता है ॥ १४ ॥ स्वाचीरं हृष्टमव्यङ्गजातिवेषक्रियान्वितम् । शुक्लवस्त्रं भिषग दूतं निर्दिशेत्कार्यसिद्धये ॥ १५ ॥ उत्तम अपने आचार से युक्त, हृष्ट, पुष्ट, हीनाङ्ग से रहित अर्थात काना लंगडा आदि दोष रहित, जाति के अनुरूप वेश क्रिया से युक्त शुक्ल वस्त्र धारण किये हुये अर्थात् सफेद कपड़े पहिने हुए ऐसे दूत को कार्यसिद्धि का सूचक समझे ॥१५॥ . सद्भूतस्य परिज्ञान-मिदं सम्यगुदीरितम् । अथ सच्छकुनं बयां कार्यसिद्धिप्रदायकम् ॥ १६ ॥ यह उत्तम दूतके परिज्ञान को कहा; अब कार्यसिद्धिदायक उत्तम शकुनों को कहूँगा ॥ १६ ॥ दधिरत्नद्विजातीना-मक्षतानां नृपस्य वा। वृषाणां पूर्णकुम्मानां दर्शनं कार्यसिद्धिदम् । १७ ।। रोगी के यहाँ यात्रा के समय यदि दही, अन्न, ब्राह्मण, अक्षत, राजा, वृषभ अथवा पूर्ण कुम्भ-अर्थात् जल से भरा घड़ा मिल जाय तो कार्य सिद्ध समझे तात्पर्य यह है कि इनका दर्शन कार्यसिद्धि का दायक होता है ॥ १७ ॥ सुरध्वजपताकानां फलानां सितवाजिनः । वर्धमानकुमारीणां दर्शनं कार्यसाधकम् ॥ १८ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102 103 104 105 106