Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 105
________________ रोगिमृत्युविज्ञाने सामने कभी भी न कहे और यह मर जायगा ऐसी बात भी न करे ॥ ३० ॥ यतो हि जायते क्लेशो बन्धूनामातुरस्य च । - अरिष्टनिश्चये बयाच् श्रद्धालून् भावकाञ्जनान् ॥ ३१ ॥ क्योंकि मरण सुनकर रोगी के बन्धु कुटम्बियों को दुःख होता है और रुग्ण बीमार को भी अपने को मरणासन्न सुनकर दुःख होता है। परन्तु अरिष्ट का सर्वथा निश्चय हो जाने पर अपने श्रद्धालु भावुक योग्य सद् व्यक्तियों से अर्थात् अच्छे प्रतिष्ठित पुरुषों से. कह दे ॥ ३१॥ अरिष्टबोधः समुदीरितो मया यतो भिषक् तिष्ठति सर्वतोऽग्रणीः । जनेष पूज्यो यशसा विभूषित - ____श्चिकित्सकैः साधु सदैव कीयते ॥ ३२ ॥ . इति श्रीसर्वतन्त्रस्वतन्त्र-विद्यावारिधि-महामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसाददीक्षितकृते रोगिमृत्युविज्ञाने __दशमोऽध्यायः समाप्तः। मैंने अरिष्ट ज्ञान को उत्तम प्रकार से कहा, जिसके जानने से वैद्य सब वैद्यों में श्रेष्ट होता है, जन समुदाय में पूज्य होता है, यशस्वी यश से शोभायमान लोग उसकी सदैव प्रशंसा करते हैं, और सब वैद्य भी उसको सदा ही अच्छा मानते हैं ।। ३२ ॥ इति श्री सर्वशास्त्रपारंगत विद्यावारिधि म० म० पं० मथुराप्रसाद कृत रोगिमृत्युविज्ञान का दशम अध्याय समाप्त । विरमगधिमृत्युविज्ञानम् -

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