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अष्टमोऽध्यायः
भेददाह विनाशाद्य - शुभैर्वचनैर्युतम्
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कुतोऽपि शृणुयाद् वाक्यं दूतोक्ते तं न च ब्रजेत् ॥ १२ ॥ दूत के कथन समय में अर्थात् जिस समय रोगी का हाल और वैद्य को चलने को कहता हो उस समय यदि भेद, दाह, विनाश इत्यादि अशुभ शब्दों से युक्त वाक्य कहीं से भी सुने तो फिर उस दूत के साथ न जाय । रोगी को आसाध्य मरणासन्न समझे ॥ १२ ॥ दूतसंवादकाले स्याद् अशुभं किमपीह यत् ।
श्रुत्वाऽनुभूय दृष्ट्वा तत् तेन साकं न च ब्रजेत् ।। १३ ॥ दूत से वात चीत करते समय जो कुछ भी अशुभ हो जाय तो उस अशुभ को सुन कर अनुभव कर अथवा देखकर उस दूत
के
साथ न जाय ॥ १३ ॥
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अयुक्तमाविवाक्येषु वाक्य कालेऽथवा पुनः । दूतानां व्याहृतं श्रुत्वा वैद्यो मरणमादिशेत् । १४ ॥ अयुक्त - खराब होनहार सूचक वाक्यों के कहने पर, अर्थात् दूत के कथन के समय कोई मध्य में आकर अयुक्त होनहार बात कह दे, अथवा दूतोक्ति के अनन्तर कह दे तो वैद्य दूत के वचन को सुनकर कह दे कि यह रोगी असाध्य है, यह नहीं बचेगा ।। १४ ।। चरकादिवर्णितं मयाऽऽत्मसात्कृत्य तदेव दर्शितम् ।
मुनिप्रणीतं
विलोक्य यन्नैव विमुह्यते काचिद्
भिषग्वरो रोगिषु कालनिर्णये ॥ १५ ॥ .
इति श्री महामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसादकृते रोगिमृत्युविज्ञाने श्रष्टमोऽध्यायः