Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

View full book text
Previous | Next

Page 95
________________ रोगिमृत्युविज्ञाने विछाने के विशेष उपयुक्त वस्त्र अथवा उपानयुग अर्थात् दोनों जूतों के (इन पूर्वोक्त में किसी के ) भी गिर जाने से अथवा नष्ट हो जाने से सर्वथा छत्रोष्णीषादि फट जाने से अनुपयुक्त प्राय हो जाने से यद्वा खो जाने से चुराजाने से परिवर्तित मार्ग से ही लौट जाय रोगी के यहाँ न जाय ॥ ३॥ . प्रासादवैजयन्त्योर्वा चूर्णानां पतनं तथा । हतानामशुभं श्रुत्वाऽध्वनोपि परिवर्त्तताम् ॥ ४॥ प्रासाद-राजन्दिर अथवा देवमन्दिर यद्वा उत्तम मकान :अथवा वैजयन्ती पताका का एवं चूर्ण चूना का गिरना देखकर अथवा मारे गये का यद्वा मरण आदि अशुभ सुन कर जाता हुआ भी वैद्य मार्ग से लौट आवे. असाध्य अनिष्ट समझे ॥ ४ ॥ मार्जारेणाहिना वाऽपि मार्गच्छेदः शुना भवेत् । न गच्छेच्छिन्नमार्गेण पश्यन् स्वीयाशुभं भिषक् ॥ ५ ॥ मार्जार-बिल्ली से, अहि-सर्प से अथवा श्व-कुत्ता से, यदि मार्गच्छेद हो जाय तो वैद्य उस छिन्न मार्ग से जाने में अपने अशुभ को देखता हुआ न जाय । तात्पर्य यह है कि यदि पूर्वोक्त प्राणियों से छिन्न मार्ग से वैद्य जायगा तो निश्चितरूप से उसका अशुभ अनिष्ट होगा।।५।। शृगालोलूकसिंहानां क्रू राणां शृणुयाद् गिरम् । दीप्तदिक्षु प्रपन्नां चेद् आतुरं न बजेद् भिषक् ॥ ६॥ उत्तम दिशा में अर्थात् समुज्ज्वलित प्रकाशमान दिशाओं में शृगाल उलूक अथवा ऋ र सिंहादिकों के यदि शब्द को सुने तो फिर आतुर (रोगी) के यहाँ न जाय, किंतु मार्ग से ही लौट जाय ।। ६ ॥ श्रासनं शयनं यानं पश्येदुत्तानमध्वनि । अन्यच्चाप्यप्रशस्तं वा दृष्ट्वाऽऽगच्छेत्परावृतः ॥ ७ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106