Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 94
________________ अथ नवमोऽध्यायः १ ॥ उक्त दूतविचारोऽयम् अथ मार्गगतौ ब्रुवे । । जातेऽपशकुने यस्मिन् तद् दृष्ट्वाऽपसरेद् भिषक् ॥ मैंने इस दूत विचार को कहा, अब मार्ग में जाते हुये उत्पन्न अपशकुनों को कहता हूँ । जिनको देखकर वैद्य रोगी के यहाँ न जाकर लौट जाय ॥ १ ॥ स्खलनोत्कुष्टपतनम् आक्रोशं क्षुद्विगर्हणे । | प्रतिषेधप्रहारौ वा दृष्ट्वा गच्छन्न च व्रजेत् || २ || स्खलन - किसी वस्तु का भूलना अथवा अपना या दूसरे का रपट कर गिरना, उत्क्र ुष्ट - चिल्लाना दूसरे को झाड़ना डाटना आदि, पतनकिसो का गिरना, आक्रोश - गाली आदि देना, क्षुत् छिक्का, किसी की भी छक्का छीं का होना, विगर्हण किसी की भी निन्दा, प्रतिषेध रोकना, अपना रोकना अथवा दूसरे से दूसरे का रोकना, अर्थात् 'नहीं जाओ' इत्यादि प्रकार से दूसरे का रोकना और प्रहार मारपीट अथवा किसी पशु आदि का प्रहार देखकर जाता हुआ भी नहीं जाय किन्तु लौट आवे | यह मार्ग गत शकुन विचार ग्राम के बाहर तक ही लेना । यह एक सिद्धान्त है । एक दिन के आरम्भिक विश्राम स्थान तक लेना यह अन्य लोगों का है, चलते हुये तुरत सामने हो, किसी का ऐसा भी सिद्धान्त है ।। २॥ छत्रोष्णीषोत्तरासङ्गं वस्त्रोपानद्युगं तथा । नष्टं निपतितं ज्ञात्वा परिवर्तेत् नच व्रजेत् ॥ ३ ॥ छत्र- छतरी, उष्णीष पगड़ी सिर में बाँधने का साफा टोपी आदि, उत्तरासङ्ग कन्धे पर डालने का दुपट्टा आदि, वस्त्र पहिरने के या

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