Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 90
________________ अष्टमोऽध्यायः ___ वैद्य को पितरों के लिये पिण्डदान करते हुए, अथवा अग्निहोत्र यद्वा होम करते समय यदि रोगी का दूत वैद्य को बुलाने के लिये आवे तो उसे लौटा दे, रोगी को असाध्य समझकर न जाय ॥४॥ कथयत्यप्रशस्तानि चिन्तयत्यपि तानि वा। वैद्य दूता य आयान्ति रिक्तांस्तान् परिवर्तयेत् ॥ ५॥ वैद्य कुछ अप्रशस्त-मरण आदि की वार्ता करता हो, अथवा कुछ अप्रशस्त बातों को विचारता हो, ऐसे समय में यदि रोगी का दूत आवे तो उसे खाली लौटा दे, असाध्य समझकर चिकित्सा को न जाय ॥५॥ मृतदग्धविनष्टानि सेवमाने ब्रवत्यपि । वैद्य दूताः समायातास्तैः समं न बजेद्भिषक् ॥ ६॥ यदि वैद्य के पास मृत-मरे हुये का, दग्ध-जले का, अथवा विनष्ट-खोये हुये का कार्य करते समय अथवा उसकी बात-चीत करते समय रोगी का दूत आ जाय तो उसके साथ चिकित्सा करने न जाय ॥६॥ दीनभीतद्रुतत्रस्तां मलिनां कुलटां स्त्रियम। त्रीन् व्याकृतांश्च षण्डांश्च दूतान् यातान्न च व्रजेत् ।। ७ ॥ ___ दीन-अत्यन्त दुःखिनी खिन्न, भीत-भयाकुल, द्रुत-जल्दी कर रही, त्रस्त-त्रासयुक्त, उद्विग्न घबड़ाई हुई, मलिना-मलिन वस्त्र और आकृति आदि से युक्त, कुलटा व्यभिचारिणी स्त्री, तथा तीन अङ्गों से विकृत, और षण्ड-नपुंसक हिजड़ा, इस प्रकार के आये हुये रोगी के दूतों के साथ न जाय, असाध्य समझकर रोगी के चिकित्सार्थ न जाय ॥ ७ ॥ पलालं पललं वापि बुसकेशनखान् स्पृशन् । तत्पूर्वदर्शनं दूतं दृष्ट्वा नानुव्रजेद् भिषक् ॥ ८॥

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