Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 86
________________ सप्तमोऽध्यायः ७७ दिन से अधिक नहीं जियेगा अर्थात् जिस समय रोग का वेग होता है, तीसरे दिन उसी समय मरेगा ॥ २० ॥ अहास्यहसनो मुह्यन् यो लेढि रदनच्छदौ । शीतलांघिकरोच्छवासः स तु जीवति तदिनम् ॥ २१ ॥ महामोहान्धतां प्राप्तः समीपस्थं न पश्यति । .. सन्निधिस्थं स्वकं त्वन्यं मत्वाऽऽह्वयति तं ब्रजन् ॥२२॥ जो रोगी बिना हँसी के अप्रासङ्गिक यों ही हँसे, और मोह को प्राप्त दूसरे को दूसरा समझे, अर्थात् न पहचाने। तात्पर्य यह कि कुछ-कुछ ज्ञान नष्ट हो जाय, और बारंबार जीभ से ओठों को चाटता हो और हाथ पैर तथा श्वासोच्छवास शीतल-ठंढा हो तो वह केवल उसी दिन जियेगा, अर्थात् बारह या चौवीस घंटों में मर जायगा। जो रोगी अत्यन्त अन्धकार को प्राप्त हो, अर्थात् दिन के प्रकाश में अथवा रात्रि में बिजली या दीप के प्रकाश में कुछ भी न देख पड़े। पास में खड़े हए को भी न देखे, तथा पास में विद्यमान अपने ही पुत्र बान्धवादि को 'दूसरा यह कोई है' ऐसा समझे, अर्थात् अपने आदमी को न पहिचाने, तथा उस दूसरे आदमी को जाते हये को आत्मीय ही जाता है यह मानकर 'कहाँ जाते हो' यह कर बुलावे वह उसी दिन मरेगा, उपद्रवाधिक्य से अथवा अन्धकारादि से दो घंटों के अन्दर ही मरने की कल्पना करे ॥ २१, २२ ॥ सर्व रोगाश्च वर्धन्ते बलस्य मनसः क्षयः । जायते त्वरितं यस्य त्रिदिनं स न यास्यति ॥ ३३ ॥ जिसके सब रोग एक दम से बढ़ जायँ अर्थात् ज्वर खाँसी शिरोवेदना आदि जो रोग हों वे एकदम बढ़ जाय, और मन तथा बल का क्षय जल्दी एकदम से नष्ट मालूम दे, वह तीन दिन नहीं जियेगा ॥ २३ ॥

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