Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 85
________________ “७६ रोगिमृत्युविज्ञाने ग्रीवाऽवमर्दोऽतिमहान् रसज्ञाश्वयथुस्तथा। ताल्वास्यकण्ठपाकश्च यस्य स्यात्स न जीवति ॥ १७॥ जिसकी ग्रीवा में बड़ी पीड़ा हो अर्थात् मानों ग्रीवा (घींच ) टूटी जा रही हो ऐसी उत्कट पीड़ा हो तथा जिह्वा सूज जाय और तालु, मुख, कण्ठ में सूजन (शोय) उत्पन्न हो जाय, वह अधिक दिनों तक नहीं जियेगा ॥१७॥ मुग्धः केशान् प्रलञ्चेद्यो गृह णात्यन्यांश्च निर्भरम् । स च स्वस्थवदाहार-वचनो मरणोन्मुखः ॥१८॥ मुग्ध मूढ़ अर्ध विक्षिप्त के समान रोगी अपने बालों को पकड़ कर नोचे-खींचे, उखाड़े और अन्य किसी मनुष्य को जोर से पकड़े और स्वस्थ पुरुष के समान भोजन और बात चीत करे तो भी वह मरणोन्मुख ही है ॥ १८ ॥ नेत्रयोनिकटे कृत्वा मृगयेताङगुलीयकम् । निर्निमेषस्तथोर्वाक्षः स्मयते शमनं ब्रजन् ॥ १९ ॥ जो रोगी नेत्रों के पास हाथ करके अपनी अंगुलीयक ( मुदरी) को ढता है मिथ्या ही अँगुलीयक न होनेपर भी अँगुलीयक ढ़ढता है अथवा निमेष रहित एकटकी लगाकर ऊपर की तरफ देखता और मुसकुराता है, कुछ २ भीतर ही भीतर अर्थात् मन ही मन में कुछ हँसता है वह यमराज के यहाँ गमनोन्मुख है ॥ १६ ॥ रुग्णो यः शयनाद् वस्त्रा-दङ्गात्कुड्यादथापि वा । असन्मृगयते किश्चित् स त्रिमिदिवसैब्रजेत् ॥ २० ॥ जो रोगी खाट से अर्थात् जिस खाट पर लेटा है उसी खाट से अथवा अपने ही वस्त्र से अथवा अपने शरीर से यद्वा पास में विद्यमान भीत आदि से असत् मिथ्या ही किसी वस्तु को ढ़ढ़ता है वह तीन

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