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अथ षष्ठोऽध्यायः मुमूर्षुणामिदं ज्ञानमुदीर्यते ।
शीघ्रमेव येन स्पृष्टो
ह्यरिष्टेन न जीवति कथंचन ॥ १ ॥
शीघ्र जल्दी- मरणासन्नों का यह ज्ञान मैं कहता हूँ, कि जिस जिस अरिष्ट से स्पृष्ट ( युक्त) रोगी कभी भी नहीं जीता है, अवश्य ही मरणोन्मुख है ॥ १ ॥
वातष्ठीलाः सुसंवृत्ताः जायन्ते हृदि दारुणाः । तृषाभिश्चाभितप्तस्य प्राणा गच्छन्ति सत्वरम् ॥ २ ॥
अत्यन्त दारुण, सुसंवृत्त - बँधी हुई वातष्ठीला वायु की गुच्छी जिसके हृदय में उत्पन्न हो, अर्थात् अत्यन्त पीड़ाजनक जिसके हृदय में वायु की ग्रन्थि उत्पन्न हों और पिपासा अत्यधिक उसे संतप्त करे, पिपासा शान्त न हो, वह शीघ्र ही मरेगा ॥ २ ॥
नृदेहे विचरन् वातो वक्रां नीत्वा च नासिकाम् ।
पिण्डिके शिथिले कृत्वा सद्यो हरति जीवितम् ॥ ३ ॥
मनुष्य के शरीर में घूमता हुआ वायु जिसकी नासिका को टेढी कर दे और पिड़िकाओं को पैर की फीलियों को शिथिल कर दे, उसके प्राण जल्दी निकल जायँगे, वह बहुत काल तक नहीं ठहरेगा । भ्रुवौ निपतिते स्थाना-दन्तर्दाहश्च दारुणः । taraरस्त्वसौ रोगो यस्य स्यात्स मृतोपमः ॥ ४ ॥ - भ्रुकुटी जिसकी गिर जाँय, अर्थात् भौं आ जाय और हृदय में दारुण दाह हो, हिक्का अधिक आवें, यह हिक्काकर रोग जिसको उक्त लक्षणयुक्त उत्पन्न हो जाय वह मृत पुरुष के समान है, अर्थात शीघ्र ही मरेगा ॥ ४॥
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