Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 78
________________ ६६ षष्ठोऽध्यायः नाश कर देता है, दुर्बल को विशेष कर अर्थात् वह अवश्य जल्दी मरेगा ॥८॥ गुदवक्षणयोर्मध्ये विचरन् मारुतो बली। श्वासमुत्पादयंश्चापि व्याधितं हन्ति सत्वरम् ॥९॥ बली वायु गुदा और वंक्षण के मध्य में चलता हुआ, श्वास को उत्पन्न कर शीघ्र ही रोगी को मार देता है ।। ६ ।। नाभित्रस्तिशिरोमूत्र-पुरीषाणि प्रभजनः। विवध्य जनयन् शूलं सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ १४॥ . प्रभञ्जन-महान् उग्र वायु नाभि, वस्ति (नाभि के अधोभाग की शिरा) मूत्राशय, शिर-मस्तक, मूत्र और पुरीष को बाँध कर शूल को उत्पन्न करता हुआ शीघ्र ही प्राणों को हर लेता है, अर्थात् वह मुमूर्षु (मरणासन्न) है ॥ १० ॥ तुद्येते वंक्षणौ यस्य शूलवातेन सर्वतः । पुरीषं मिद्यते तृष्णा वर्धते स ब्रजेद् द्रुतम् ॥ ११ ॥ जिसका वङ क्षण-ऊरुओं का सन्धिस्थान, शूलजनक वायु से अत्यधिक सर्वतोभाव से वेदना करै और मल फट गया हो, तथा पिपासा अत्यधिक हो, वह जल्द ही मरणोन्मुख परलोक जा रहा है। मारुतेनाप्लुतो देहः केवलं यस्य दृश्यते ।। भिन्न पुरीष तृष्णा च स प्राणांस्त्वरितं त्यजेत् ॥ १२ ॥ जिसका शरीर केवल-सर्वतः वायु से व्याप्त हो और मल फट गया हो अर्थात् पाखाना छितरा सा हो, तथा पिपासा अत्यधिक हो वह मृत समान शीघ्र ही मरनेवाला है ॥ १२॥ ... भृशं वातेन शोथः स्योच्छरीरे यस्य देहिनः । पुरीषं भिद्यते तृष्णा वर्धते स मृतोपमः ॥ १३॥ .

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