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रोगिमृत्युविज्ञाने
भोजन के लिये अत्यन्त अरुचि हो जाय, ऐसा रोगी केवल तीन दिन
जियेगा ||४३ ॥
मृत्यूपकण्ठमायाते रुग्णे वैद्यो विभावयेत् ।..परिलक्ष्यैव निश्चित्या - रिटज्ञाता त्यजेत्पुनः ॥ ४४ ॥
मृत्यु के समीप में प्राप्त रोगी को वैद्य अच्छी तरह देखे और अरिष्ट के लक्षण को देख कर उस अरिष्ट का पूर्णरूपेण निश्चय कर के ही उस रोगी का परित्याग करे । तापर्य यह है कि अरिष्टज्ञान के निश्चय से ही रोगी का त्याग करे, अरिष्टाभास में नहीं और जब तक अरिष्ट उत्पन्न नहीं हो तब तक अवश्य चिकित्सा करे ॥ ४४ ॥ पुनर्वसोरेव वचः प्रमाणतो निदर्शितोऽयं सदरिष्टसंचयः ।
भवेच्च यज्ज्ञानबला च्चिकित्सकः
समासु लोकेषु चिकित्सकाग्रणीः ॥ ४५ ॥
इति श्रीमहामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसादकृते रोगिमृत्युविज्ञाने पञ्चमोऽध्यायः ।
यह उत्तम अरिष्ट का संग्रह पुनर्वसु- चरकनिर्माता श्रीपतञ्जलि ऋषि जी के वचनानुसार मैंने कहा है, जिस अरिष्ट ज्ञान से वह वैद्य सभाओं में और समस्त वैद्यों में चिकित्सकाग्रणी सर्वश्र ेष्ठ वैद्य हो जायगा ।। ४५ ।।
इति श्री म० म० पं० मथुराप्रसाद कृत रोगिमृत्युविज्ञान का पञ्चम अध्याय समाप्त ।