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रोगिमृत्युविज्ञाने के सन्धिस्थान में शूल होती हो और दुःख को प्राप्त हो, अर्थात् बेचैनी शरीर वेदनादि से कष्ट हो, इस प्रकार के रोगी को वैद्य मुमूर्षु समझ कर छोड़ दे ॥ ३५ ॥
अपस्वरं त्रुवन् यस्तु स्वस्याप्तं मरणं वदेत् । अपस्वनं च शृणुयात् तस्याप्तं मरणं वदेत् ॥ ३६॥ . जिसका शब्द अपस्वर हो अर्थात् जिसका स्वर खराब हो गया हो, और बार २ अपने मरण को कहता हो और अपस्वन को सुने, शब्दरहित आकाश से आते हुए शब्द को सुने, बिना शब्द के शब्द सुने, उसका मरण प्राप्त है, यह समझे ॥ ३६ ॥
सहसैव ज्वरो यस्य दुर्वलस्योपशाम्यति ।
तस्यापि जीवनं किंचित् संशये प्रतितिष्ठति ॥ ३७॥ जिस ज्वरी दुर्बल रोगी का ज्वर सहसा-एकदम अकस्मात् शान्त हो जाता है, उसका जीवन संशयास्पद है, यदि नाड़ी ठीक है तो '' यत्न करे, अन्यथा नहीं ॥ ३७ ।।
भेपजैविविधैर्मासं रसैश्चोपचरेत् क्रियाम् । यदि लाभं न लभते तमसाध्यं वदेत्तदा ॥ ३८॥ अनेक प्रकार के क्वाथ चूर्ण अवलेहादि से और रसाभ्रादिक से एक मास तक उपचार-ठीक प्रकार से पथ्यादि पालन से चिकित्सा करे, परंतु फिर भी यदि लाभ नहीं हो तो उसे असाध्य समझे। अरिष्ट ज्ञान का तद्विषयक प्रकार बताते उसकी परीक्षा करे ॥ ३८ ॥
पुरीषवीयनिष्ठयूतान्यप मध्ये च पातयेत् । मज्जन्ति चेद् विजानीयाद् असाध्योऽयं मरिष्यति ॥३९॥ उस रोगी का पुरीष-विष्ठा पाखाना, वीर्य और निष्ठय त-थूक कुछ कफ सहित होने पर स्पष्ट प्रतीति हो सकेगी, इनमें से किसी को