Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ पञ्चमोऽध्यायः पक्ष्माणि स्युर्जटावन्ति यैश्च दृष्टिनिरुध्यते । यस्य रुग्णस्य तं वैद्यो न चिकित्सेत कथंचन ॥ १ ॥ जिस रोगी के आँख पर की ब्यन्नी अर्थात् पलकों के बाल ऐसे जटायुक्त हो र्जाय कि जिससे उस रोगी की दृष्टि रुकजाय, कुछ भी दिखाई न पड़े, उस रोगी की वैद्य कथमपि चिकित्सा न करे, वह अवश्य उसी मास में मरणासन्न है ॥१॥ शुष्यतो नेत्रपटले उच्छ्नत्वं समागते । नेत्रयोरपि दाहः स्यात् यस्य सोऽन्तं गमिष्यति ॥२॥ शुष्क नेत्र पटल-आँखों के पोटे यदि सूज जांय और नेत्रों में दाह-जलन जिसके उत्पन्न हो जाय वह अवश्य शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होगा ॥२॥ भ्रुवोर्वा मूर्ध्नि पद्यावद् रेखाः स्युर्बहवः स्फुटाः। अपूर्वा अकृता यस्य स जीवति दिनत्रयम् ॥३॥ जिस रोगी के भौंहों में अथवा शिर के वालों में मार्ग की तरह अनेक रेखाएँ स्पष्ट अपूर्व (प्रथम वालों में नहीं पड़ती हो और कृत्रिम नहीं हो किन्तु प्राकृतिक रुग्णावस्था में) पड़ी हों वह रोगी तीन दिन जियेगा ॥३॥ रुग्णस्तु त्रिदिनं जीवेदरुग्णः षड् दिनानि च । प्रायश्चैतदरुग्णे तु कचिदेव विलोक्यते ॥ ४ ॥ रुग्ण-बीमार के यदि पूर्वोक्त रेखायें पड़ जाय तो केवल तीन दिन जियेगा और यदि स्वस्थ नीरोग के पूर्वोक्त रेखायें पड़ जाय

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106