Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 63
________________ १४ रोगिमृत्युविज्ञाने सङघीभूतं भवेन्मांसं त्वयाऽस्थि विलोक्यते । अनश्नतोऽल्पभोज्यस्य जीवनं मासमात्रकम् ॥ ३६॥ जिसका मांस इक्ट्ठा हो जाय और जहाँ से मांस गया है वहाँ की अस्थि-हड्डी-त्वचा के मध्य में स्पष्ट दिखाई दे, मन्दाग्नि, भोजनरहित अथवा अल्प भोजन हो उसका जीवन केवल १ मास का है, अर्थात् वह एक मास मात्र जियेगा । ३६ ॥ यदग्निवेशः समुदैरयत्स्वके चिकित्सकानामुपकारकेऽदभुते। सुधासदृक्षे चरके सुवर्णितं मयाऽत्मसात्कृत्य तदेव गुम्फितम् ॥३७॥ इति श्री महामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसादकृते रोगिमृत्युविज्ञाने चतुर्थोऽध्यायः । जो अग्निवेश ऋषि जी ने वैद्यों के उपकारक अद्भुत अमृत सदृश चरकसंहिता नामक अपने ग्रन्थ में उत्तम प्रकार से वर्णन किया है, उसीको श्लोकबद्ध करके मैंने वर्णन किया है। चरक-ग्रन्थानुकूल ही इस अरिष्ट प्रकरण को समझो। इति श्री म० म० पं० मथुराप्रसादकृत रोगि मृत्युविज्ञान का चतुर्थ अध्याय समाप्त ।

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