Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 58
________________ ४६ चतुर्थोऽध्यायः जिस रोगी के गुह्यस्थान-गुदा और जननेन्द्रिय पर शोथ हो जाय, तथा उदर हाथ पैरों में शोथ स्थिर हो जाय अर्थात् हाथ पैरों में अधिक शोथ हो जाय, एवं दुर्बल बल वर्ण आहार से रहित अथवा नितान्त कम हो जाय उस रोगी को वैद्य छोड़ दे, मरणोन्मुख समझकर उसकी चिकित्सा न करे ॥ १७ ॥ यस्य वक्षोगतः श्लेष्मा नीलः पीतः सशोणितः । च्यवते सततं बाढं तं भिषक् दूरतस्त्यजेत् ॥ १८ ॥ जिस रोगी की छाती में घरघराहट से अथवा अन्य प्रकार से श्लेष्मा मालूम दे, तथा काला पीला अथवा शोणितयुक्त कफ बहुत और सदा गिरे, उस रोगी को दूर ही छोड़ दे ॥ १८ ॥ क्षीणमांसं समुच्छूनं कासज्वरनिपीडितम् । सान्द्रप्रस्रावकं वैद्यो हृष्टरोमाणमुत्सृजेत् ॥ १९ ॥ जिसका मांस क्षीण हो गया हो अर्थात् अत्यधिक दुर्बल हो और समस्त देह में शोथ हो, अर्थात् सारे देह में सूजन हो, ज्वर कास से निपीड़ित, ज्वर हो और खाँसी का वेग हो, पेशाब-मूत्र गाढा हो और रोम सदा खड़े हों जैसे शीतज्वर-मलेरिया के आरम्भ में खड़े होते हैं वैसे खड़े हों उस रोगी को छोड़ दे ॥ १६ ॥ यस्य कोष्ठे त्रयो दोषा लक्ष्यन्ते कुपिता इव । बलमांसविहीनस्य तस्य नास्त्यौषधं क्वचित् ॥ २० ॥ . जिस रोगी के शरीर में वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष कुपित से मालूम दें और वह रोगी बल मांस रहित हो गया हो तो उसकी चिकित्सा नहीं है, वह असाध्य है ॥ २० ॥ ज्वरातिसारौ शोफान्ते यद्वा स्याच्च तयोः क्षये । दुर्बलस्य भवेतां चेत् न स जीवेत्कथंचन ॥ २१ ॥

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