Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 57
________________ ४८ रोगिमृत्युविज्ञाने ठठरी मात्रावशिष्ट रह गया हो, वह प्रेतसदृश मृतप्राय है, वैद्य उसके जीवन की आशा न करे ॥ १४ ॥ यस्य कुक्षिगतः शोथः पाणिपादं विसर्पति । दुर्बलः स्वल्पभोज्यश्च न स स्थास्यति वै चिरम् ॥ १५॥ जिस रुग्ण-ज्वरी अतीसारी प्लीहादि रोगाक्रान्त-के कुक्षिओं में शोथ हो जाय और हाथ पैरों में भी शोथ हो जाय, एवं दुर्बल-बल मांस रहित तथा स्वल्पभोज्य भोजन सर्वथा कम हो गया हो वह रोगी अधिक समय तक नहीं जीयेगा, यदि मुख पार्श्व रहित केवल हाथ पैर में शोथ हो जाय, तो वह मकोय आदि के उपचार से शान्त हो जाता है एवं द्वितीयावृत्ति में भी साध्य है, परन्तु यदि तृतीयावृत्तिमें भी शोथ हो जाय तो उसे अरिष्ट समझो, वह मुख पार्श्व में भी स्वल्परूपेण अवश्य रहेगा और वह रोगी आठ दिन में अथवा एक मास में अवश्य मर जायगा ॥ १५ ॥ यस्य पादगतः शोथः शिथिले पिण्डिके तथा। श्रोणी विसीदतश्चापि तं विद्याद् विगतायुषम् ॥१६॥ जिसके ज्वराजीर्णादि किसी प्रकार के रोगसे पैरोंमें शोथ हो और पिंडिका गोड पैरों के ऊपर का भाग शिथिल हो जाय और जंघाओं में वेदना तथा कुछ दुर्बलता सूखापन ख श्की आ जाय उसे विगतायुष समझो, दोषानुरूप छ महीने तक चल सकता है, छ महीने के मध्य में ही मरेगा, कभी कोई रोगी रसादि चिकित्सा में अधिक समय भी अशक्त अवस्था में जीवित देखा गया है परन्तु वह यक्ष्मा रोगाक्रान्त माना जायगा और वह भी तीन वर्ष से अधिक कथमपि नहीं जीता है ॥ १६ ॥ यस्य गुह्योदरे शोथो हस्तपादेऽपि सुस्थितः । हीनाः वर्णबलाहारास्तं भिषक् परिवर्जयेत् ॥ १७ ॥

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