Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 44
________________ तृतीयोऽध्यायः ३५ को प्राप्त होगा, और स्वस्थ नितान्त कष्ट को प्राप्त होगा, कभी-कभी रोगी भी अत्यधिक कष्ट पा कर स्वस्थ हो जाता है ॥ २७ ॥ पांशुव्याप्तक्षितौ किं वा वल्मीके भस्मनां चये । श्वभ्रे श्मशानगेहाद् वा स्वप्ने पाताद् विनंक्ष्यति ॥२८॥ जो मनुष्य स्वप्न में धूलि से व्याप्त पृथिवी पर अर्थात् जहाँ वारीक धूलि का भदभद हो, ऐसी भूमि अथवा वाँबी पर-जहाँ सो के निवास स्थान का गृह हो वहाँ, अथवा राख के ढेर पर यद्वा बड़े ऊँचे महल से अथवा श्मशान घर से अर्थात दाह के समय लोगों के बैठने के लिये जो छायागृह बना होता है उससे जो गिरता है वह अवश्य नष्ट हो जाता है, अर्थात् मर जाता है ॥ २८ ॥ पङ्के कूपे तमोव्याप्ते मलिनेऽम्भसि मजति । स्रोतोवेगेन यः स्वप्ने नीतः सोऽन्तं प्रयास्यति ॥ २९ ॥ जो रोगी या स्वस्थ स्वप्न में कीचड़ में, अथवा अन्धकार में व्याप्त कुआँ में अर्थात् अंधे जल रहित कुआँ में, अथवा मलिन जल में डूबता है, अथवा नदी आदि जल के वेग से बह जाता है, वह मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ २६ ॥ अभ्यङ्गं स्नेहपानं वा स्वप्ने बन्धपराजयौ । वमिं विरेचनं यद्वा यातो नाशं प्रयास्यति ॥ ३० ॥ . जो स्वप्न में तैल आदि को देह में अत्यन्त मसलता है लगाता है, अथवा तैल का पान करता है, यद्वा किसी रज्जु आदि से बन्धन को या पराजय को प्राप्त हो अथवा वमन या विरेचन को प्राप्त हो वह नाश को (मरण को) प्राप्त होगा ॥ ३० ॥ हिरण्यं लमते किं वा कलहं कुरुते जनैः। स्वप्ने प्राप्नोति हर्ष यः स दुःखं याति मृत्युवत् ॥ ३१ ॥

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