Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 49
________________ रोगिमृत्युविज्ञाने . जल, धूप दीप, ज्योत्स्ना और दर्पण में प्रतिबिम्ब के न्यूनाधिक होने पर स्वल्पकाल में होने वाले भृत्यु को कहे ॥ ४५ ॥ छायापुरुषसिद्धानामेवेत्येतत्तु विश्रुतम् । न तु सर्वेषु दृष्टा सा मृत्युज्ञानस्य बोधिका ॥ ४६॥ छाया पुरुष जिनको सिद्ध है तत्परक ही यह छाया से मृत्युज्ञानं को जानना, सर्वसाधारण-जिनको छायापुरुष सिद्ध नहीं है, उन पुरुषों के विषय में यह छाया से मृत्यु ज्ञान नहीं होता है, क्योंकि उनकी छाया में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता है।४६ देहात्मानावभिन्नौ च कुरुतः सकलां क्रियाम् । अत आत्मगतिं ब्रते छाया वैकृत्यमागता ।। ४७ ॥ देह और आत्मा अभिन्नरूप से व्यवहार में रहते हैं, क्योंकि विना देह के आत्मा मोक्षातिरिक्त अवस्था में नहीं रहता है, अतः व्यावहारिक समस्त कार्य देह आत्मा मिलकर ही करते हैं, इसलिये विकृति को प्राप्त छाया आत्मा की गति को कहती है, अर्थात् विभिन्न प्रकार के विकारों से तत्तत्कार्य को कहती है ॥ ४७ ।। अनुयाता न कस्मिंश्चिद् प्रत्यक्षमवलोक्यते । तथापि चरकोक्तत्वात् फलं तस्या उदीयते ॥ ४८ ॥ यह छाया का ज्ञान अनुगत रूप से किसी भी पुरुष में प्रत्यक्ष नहीं देखा गया है, परंतु चरक में छाया ज्ञान को कहा है, अत एव मैं भी विकृतिप्राप्त छाया के फल को कहता हूँ॥४८॥ - यस्याक्ष्णोर्मध्यमायातां सर्पाकृत्या कुमारिकाम । प्रतिच्छायामयीं वैद्यः पश्येत्तं परिवर्जयेत् ॥ ४९॥ जिस रोगी के आँखों में सर्प के आकार की कुमारिका (कन्या) की प्रतिच्छाया देख पड़े उसे वैद्य छोड़ दे । उसमें उत्पन्न मरण का अरिष्ट जानकर उसकी चिकिसा न करे ॥ ४६॥

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