Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 16
________________ प्रथमोऽध्यायः उपद्रव-हिक्का आध्मान आदि से प्रथम अनुमान करे, इन उपद्रवों की शान्ति के उपाय-साध्यासाध्य के हेतु आदिको विचारै, उसके बाद फिर रोगी को धैर्य देकर उत्साहित करते हुये औषध को करे । परंतु इतना ध्यान रखे कि कोई स्पष्ट अरिष्ट तो उत्पन्न नहीं हो गया है ॥११॥ तत्स्वप्नदंतवाक्यैश्च मार्गापशकुनैरपि । भावावस्थान्तराभिश्च ज्ञात्वा कुचिकित्सितम् ॥ १२ ॥ एवम्-रोगी के स्वप्नों से, आये हुये रोगी के दूत वाक्यों से, जाते हुये मार्ग में उत्पन्न अपशकुनों से और रोगी की तथा कुटुम्बियों की सत्-असत् भावावस्थाओं को जान कर फिर चिकित्सा का आरम्भ करे ।। १२॥ कानिचिद् रोगिपृक्तानि तेष्वपृक्तानि कानिचित् । तेषां परीक्षणोपायो विस्तरेण निगद्यते ॥१३॥ इन लक्षण-विचारों में कुछ ऐसे हैं, जिनका रोगी से सम्बन्ध है और कुछ ऐसे हैं जिनका रोगी से साक्षात् सम्बन्ध नहीं है, जैसे मार्ग में समुत्पन्न अपशकुन आदि । अब इनकी शुभाशुभ-परीक्षा का उपाय विस्तार से कहता हूँ॥१३॥ नायुःक्षयनिमित्तं तत् मृत्युलक्ष्मानुरूपि च । अन्तर्गतस्य बोधार्थं सर्वथोदिशाम्यहम् ॥ १४ ॥ वह आयुक्षय का सूचक है, अब इसकी इतनी आयु रह गयी है . इसका बताने वाला, मृत्यु के अचूक लक्षणों के अनुरूप जो कुछ हृद्गत है उसके जानने के लिये सर्वथा मैं उपदेश देता हूँ, तात्पर्य यह है कि उसको जान कर विलम्ब से अथवा शीघ्र होने वाली मृत्यु को वैद्य बता देगा ॥ १४ ॥ श्यामताम्रहरिनील-शुक्लाः पूर्वमनाश्रिताः । रोगावस्थासु चोत्पन्नास्तूर्ण मृत्युं बदन्त्यमी ॥ १५॥

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