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प्रथमोऽध्यायः सूचक अरिष्ट है, ऐस आचार्यों का मत है ॥ ५३ ॥
गुल्फजानुहनुघ्राण-स्तनकर्णाक्षिवंक्षणम् । स्रस्तं व्यस्तं च्युतं दृष्ट्वा भिषग मुञ्चेद् गतायुषम् ॥ ५४॥ जिस रोगी के गुल्फ-पैर की ग्रन्थि, जानु-पिंडुरी, हनु-ठोढी, अर्थात् चिवुक, घ्राण-नासिका, स्तन, कान, अक्षि ( आँख) और वक्षस्थल यदि अधोभाग की तरफ झुक जाय, अथवा फैल जाय पूर्वावस्था से बहुत बड़े हो जाय, अथवा च्युत हो जाय, सर्वथा गिर जाय-एक प्रकार से अप्रतीयमान से हो जाय तो उसे गतायु ( मृतप्राय ) देखकर अर्थात् उसे मरा हुआ जानकर वैद्य जवाब दे दे, किसी प्रकार का उपचार न करे।
मन्यागतिविहीनं वा श्वासप्रश्वासवर्जितम् ।
गतायुषं परिज्ञाय न चिकित्सेत् कथंचन ॥ ५५ ॥ जिस रोगी की नाड़ी की गति बन्द हो, श्वास-प्रश्वास रहित हो, वह मरा हुआ है ऐसा समझकर किसी प्रकार भी कुछ भी चिकित्सा न करे ।। ५५ ॥
यस्य दन्ता घनीभूताः क्षरन्ति श्वेतशर्कराम् । पक्ष्माणि वा जटावन्ति ज्ञात्वामुञ्चेत्तमातुरम् ॥५६॥ जिस रोगी के दाँत घनीभूत हों आपस में जकड़ जायँ, तथा दाँतों से सफेद बालू सी गिरती हो, अथवा आँख की पलकें जटावाली हो जायँ तो उस रोगी को मरणासन्न जानकर उसका परित्याग कर दे ॥ ५६ ॥
चक्षषी प्रकृतेहींने विकृति वा गते उभे ।
अतिप्रविष्टे वा जिह्मे स्तब्धे वा विषमस्थिते ॥५७॥ जिसकी आँखें प्रकृति से रहित हो जायँ अथवा विकृति -विकार को प्राप्त हों-यथास्थान न हों, अथवा टेढी-तरेरी हो जायें,