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प्रथमोऽध्यायः कह दे, अथवा उपद्रवों को देख कर परित्याग कर दे, जैसे हिक्का श्वासादि । परंतु साधारण उपद्रव-अधिक बोलना कपड़ा न ओढना उलझना आदि उपद्रवों को देख कर परित्याग न करे, किन्तु उनकी शान्ति के लिये चिकित्सा करे ॥ ६१ ॥
अथवा केशलोमानि व्याधितस्य प्रलोचयेत् । न प्रलोचे भवेज्ज्ञानं मृतं विद्यात्तमातुरम् ॥ ६२ ॥
अथवा मस्तक के दो चार बालों का लुञ्चन करे अथवा अन्य के द्वारा लुञ्चन करावे, परंतु उस रुग्ण को केश-लुञ्चन का ज्ञान न हो तो उसे मृत के समान समझे, तीन दिन से अधिक नहीं जीवेगा।
श्यावतामहरिद्रामाः शुक्ला जठरगाः शिराः।
भवेयुर्यस्य रुग्णस्य सप्ताहं तस्य जीवनम् ॥ ६३ ॥ जिस रोगी के पेट की नसें काली पीली ताम्रवर्ण अथवा सफेद हो जायँ, वह केवल सात दिन जीवेगा॥ ६३ ॥ एवं परिज्ञाय भिषग्वरोऽसौ न मोहमागच्छति साध्यकार्ये । प्रज्ञापराधः खलु वैपरीत्य-ज्ञाने न दोषोऽयमरिष्टतायाः ॥६४॥
इति श्री सर्वतन्त्रस्वतन्त्र विद्यावारिधि-महामहोपाध्याय ... पंडित मथुराप्रसादकृते रोगिमृत्युविज्ञाने
आयुर्विज्ञाने प्रथमोऽध्यायः। इस प्रकार अरिष्ट-ज्ञान को प्राप्त उत्तम वैद्य रोगी के साध्यासाध्य ज्ञान में मोह को-विपरीत ज्ञान को प्राप्त नहीं होता है, यदि विपरीत ज्ञान हो जाय तो बुद्धि का (समझ कर ) दोष कहे, अरिष्ट के लक्षण का नहीं ।। ६४ ॥
इति श्रीसर्वतन्त्रस्वतन्त्र विद्यावारिधि महामहोपाध्याय पंडित मथुराप्रसादकृत रोगिमृत्युविज्ञानका
प्रथम अध्याय।