Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ २६ रोगिमृत्युविज्ञाने आयास-श्रान्त-थका हुआ अपने को माने, सदा चिन्ता करता हुआ, चिन्ताजनक बातों को विचारता हुआ, प्रतिक्षण उद्विग्न घबड़ाया हुआ, अयुक्त वस्तुओं में अत्यधिक प्रेम रखे, अर्थात् पत्थर अथवा गिटकैली के छोटे २ टुकड़ों में प्रेम रखे, उन्हें लाकर . अपने पास रखे, किसी एक स्थान पर ठहरने को जी न लगे, दस २ पन्द्रह मिनट में उस स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान पर चल दे, बल की हानि हो जाय, अत्यन्त निबल हो जाय, वह विक्षिप्त निश्चित रूप से मर जाता है, क्रमशः पूर्वोक्त लक्षण एक वर्ष में उत्पन्न हो जाते हैं, परन्तु स्वल्परूप से सभी साथ ही उत्पन्न होते हैं, ऐसे उन्मादी की आयु को एक वर्ष की कह कर छोड़ दे उसकी चिकित्सा न करे॥२०॥ उदावर्ती मनःशून्यो विभ्रान्तो भोजनं द्विषन् । ईगुन्मादयुक्तो यो न तं पश्येद् भिषगवरः ।। २१ ॥ जिस उन्मादी-पागल का सदा पेट चढा रहे, मन से शून्यज्ञान रहित, सदा घबड़ाया सा बना रहे, भोजन से द्वेष रखे, सामने भोजन आवे तो उसे फेंक दे, अथवा स्वयं उठ कर चल दे, भोजन न करे, इस पूर्वोक्त प्रकार के लक्षणों से युक्त उन्मादी पागल की उत्तम वैद्य चिकित्सा न करे। समस्त दुर्लक्षणों के मिलने पर ही त्याग करे असमस्त दुर्लक्षणों के मिलने पर चिकित्सा करे ॥ २१ ॥ क्रोधिनं त्रासविभ्रान्तं मुहुर्मू समाकुलम् । तृषाहास्यपरीतास्यं दृष्टवोन्मत्तं परित्यजेत् ॥ २२ ॥ जिसे क्रोध आ गया हो, त्रास-भय से घबड़ाया हो, और बार बार मूर्छा आती हो, अर्थात् मूर्छा से व्याप्त अधिक समय तक मूर्छा ठहरती हो, मुख तृष्णा और हास्य से व्याप्त हो, अर्थात् प्यास अत्यधिक लगती हो । सदा हँसते रहे, ऐसे उन्मत्त पागल को देखकर छोड़ दे, मरणासन्न जानकर उसकी चिकित्सा न करे ॥ २२ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106