Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ द्वितीयोऽध्यायः मिथ्याभृतं तमो जाग्रद् घोरं पश्यति चक्षुषा । सोऽपस्मारमुपेत्यैव वत्सरेऽन्तं गमिष्यति ॥ २३ ॥ जो मनुष्य मिथ्या (विद्यमान रहित) झूठे ही अपनी आँखों से जागता हुआ घोर अन्धकार को देखता है, वह एक वर्ष के मध्य में अपस्मार-मिर्गी-की बीमारी पाकर नाश को प्राप्त हो जायेगा। अर्थात् एक वर्ष के अन्दर उसे मिर्गी की बीमारी होगी, और उसी में वह मर जायगा, दूसरे वर्ष तक नहीं जियेगा ॥ २३ ॥ अरिष्टमेतत्समुदीरितं मया विलोक्य विज्ञाय चिकित्सकः सुधीः । परित्यजेत् तादृशरोगिणं यतो लभेत लोकेष यशो धनानि च ॥२४॥ इति श्री महामहोपाध्याय पंडित मथुराप्रसादकृते रोगिमृत्यु-विज्ञाने आयुर्विज्ञाने द्वितीयोऽध्यायः। इस अरिष्ट के स्वरूप लक्षण को चरकादिक ग्रन्थों को देखकर मैंने कहा है। उत्तम वैद्य इन लक्षणों को समझकर पूर्वोक्त लक्षण-युक्त रोगी का परित्याग कर दे, जिससे वह जनता के मध्य में यश को पाता है और सद् वैद्य होने के कारण अत्यधिक धन को भी पाता है ॥२४॥ इति श्री महामहोपाध्याय पंडित मथुराप्रसाद दीक्षित कृत रोगिमृत्यु-विज्ञान का द्वितीय अध्याय । -: :

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106