Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 33
________________ २४ रोगिमृत्युविज्ञाने तिक्त रसों को न समझे, अर्थात् जिसको खट्टा, मीठा, कडुआ नहीं लगे, रसग्रहण-रहित जिह्वा जिसकी हो जाय, अथवा अन्यथाप्रकार से समझे अर्थात् खट्टे को मीठा समझे, अथवा मीठे को खट्टा या अन्य प्रकार को अन्य प्रकार का समझे, वह केवल एक वर्ष मात्र जोवित रहता है । तात्पर्य यह है, कि उसकी प्राणवायु जिह्वा को छोड़ चुकी है, मन पूर्णरूपेण रसनेन्द्रिय को ग्रहण नहीं करता है ॥ १४ ॥ खरान् श्लक्ष्णान् तपान् शीतान् मृदूनपि च दारुणान् । स्पर्शान् स्पृष्ट्वाऽन्यथा ब्रूयात् न तदब्दं स जीवति ॥ १५ ॥ जो मनुष्य रूखे को चिकना कहे, अथवा चिकने को रूखा कहे, · एवं गरम को ठंढा, ठंढे को गरम अथवा मृदु को कठोर एवं कठोर वस्तु को मृदु कहे, स्पर्श कर के भी अन्यथा कहे, वह एक वर्ष से अधिक नहीं जीवेगा, उसी वर्ष में उसकी मृत्यु हो जायगी। यहाँ भी उक्त प्रकार से समझे । स्पर्शनेन्द्रिय में प्राण वायु का संचार न होने से पूर्णरूपेण मन का स्पर्शनेन्द्रिय से योग नहीं होता है। त्वगिन्द्रिय की त्वग्गत तन्मात्रारूप इन्द्रिय नष्ट हो गई है। पाँचों की पाँच तन्मात्राएँ होती हैं, इत्यादि भारत इतिहास में मैंने वर्णन किया है ॥१५॥ अतप्त्वा च तपस्तीव्र योगं वाऽप्यनवाप्य यः। अतीन्द्रियं वदेत् पश्यन् न चाब्दात्सोऽधिकं वसेत् ॥ १६ ॥ जो मनुष्य तीव्र तपस्या के विना अर्थात् तपोबल की सिद्धि के विना, अथवा विना योग प्राप्त हुये (योग प्राप्ति के समनन्तर दो प्रकार के योगाभ्यास वाले योगी होते हैं । एक युक्त-योगी और दूसरे युञ्जानयोगी । युक्तयोगी को सदा समस्त चराचर संसार करामलकवत् हाथ में लिये हुये आमले की तरह भासमान रहता है और युञ्जान योगी को जिस वस्तु के जानने की इच्छा करता है वह वस्तु अतीन्द्रिय होते हुये भी प्रत्यक्षवत् देख पड़ती है। ) विना तप, विना योग-सिद्धि के जो मनुष्य अतीन्द्रिय पदार्थों को देखते हुये कहता है, प्रश्न करने पर

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