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द्वितीयोऽध्यायः यमलोकस्थ समझे । उनको आसन्न-मृत्यु समझ कर त्याग दे, अर्थात् उनकी चिकित्सा न करे ॥.११ ॥
कौँ स्वाङगुलिसंवृत्तौ कृत्वा ध्यानं न यच्छति । मुमूषमिव मत्वैनं मुञ्चेत् तूर्ण चिकित्सकः ॥ १२ ॥
जो रोगी अपनी अंगुलियों से कानों को बन्द कर के किसी की बात को अथवा किसी प्रकार के शब्द को नहीं सुनना चाहता है, उसे मरणासन्न समझ कर वैद्य जल्दी ही छोड़ दे । प्रायः ये लक्षण सन्निपात ज्वर में होते हैं, ऐसा ही देखा गया है। प्लीहा, जीर्णज्वर, संग्रहणी, अतिसार आदि में ये पूर्वोक्त लक्षण नहीं होते हैं; क्योंकि संग्रहणी-अतिसार में तो मरणासन्न तक पूर्णरूपेण ज्ञान बना रहता है, इसीलिये कहा है कि "अतीसारेण मरणं योगिनामपि दुर्लभम्" अतीसार बीमारी से मरना योगियों को भी दुर्लभ है, क्योंकि उसमें ज्ञान नष्ट नहीं होता ॥ १२ ॥
सुगन्धं वाऽपि दुर्गन्धं यः पश्यति विपर्ययात् । नासारोगाते रुग्णं तं विद्याद्विगतायुषम् ॥ १३ ॥
जो बीमार नाक की बीमारी के विना सर्वतोभाव से प्रत्येक पदार्थ में सुगन्ध को देखे, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ को सुगन्धित समझे, अथवा प्रत्येक को दुर्गन्धयुक्त प्रत्येक वस्तु को दुर्गन्धित समझे, अथवा सुगन्धित को दुर्गन्धित और दुर्गन्धित को सुगन्धित समझे, कहे, माने उसे वैद्य गतायु समझे । स्वस्थावस्था में छह महीना वह जीता है.. रुग्णावस्था में केवल तीन मास या एक मास जीता है ॥ १३ ॥
मुखपाकाद् ऋते सम्यग यो रसान्नैव बुध्यते । अन्यथा वा विजानाति न स जीवति वत्सरम् ॥ १४ ॥ जो मनुष्य मुखपाक के विना मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय,