Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 27
________________ १८ रोगिमृत्युविज्ञाने अथवा स्तब्ध-पथरीली एकाकार-ठहर जायँ अथवा विषम स्थान पर हो जायँ अर्थात् ऊपर चढ़ जायँ ॥ ५७ ॥ विमुक्तबन्धने वापि निमेषोन्मेषसंकुले। सततोन्मिषिते वापि संततं वा निमेषिते ॥ ५८ ॥ अथवा विमुक्त बन्धन होकर बड़ी बड़ी बाहर देख पड़ने लगें, अथवा निमेष-उन्मेष से अत्यन्त व्याप्त हों, अर्थात् बराबर ख लती और तुरत बंद हो जाती हों अथवा सदा ख ली रहें, यद्वा सदा बंद रहें । प्रस्रते चातिविभ्रान्ते व्यस्ते ज्ञानविवर्जिते ।। विपरीते कपोतान्धे कृष्णे नीले हरिण्मये ॥ ५९॥ अलावणे ताम्र वा श्यावे पीते च पाण्डुरे। अन्यथा वाऽतिविकृते नेत्रे दृष्ट्वा त्यजेद् भिषक् ॥ ६॥ . अथवा सदा अश्र आये अर्थात् सदा आँखों से पानी बहता हो, अथवा अत्यन्त घबड़ाई सी हो, अथवा ज्ञान-शून्य फैली सी बड़ी-बड़ी हों। कभी २ आँखों के व्यस्त न होने पर ज्ञान विवर्जित हो जाने पर भी अरिष्टाभास समझे, अतः ज्ञान-विवर्जन में आँखों का व्यास होना आवश्यक है, अथवा आँखें विपरीत हो जायँ अर्थात् आँख पलट जायँ, अथवा कपोत की तरह अन्ध हो जायँ, अथवा काली, नीली, हरित, जलती हुई लकड़ी के समान हों, अथवा ताम्रवर्ण हों, अथवा कपिशवर्ण कुछ धुमैली अर्थात् गहरी पृथ्वी के रंग की हों, अथवा नितान्त पीली अथवा पाण्डुर विलक्षण श्वेततायुक्त, अथवा अत्यन्त विकृत आँखों को देख कर वैद्य रोगी को आसन्न-मृत्यु समझ कर उसका परित्याग कर दे । ६० ॥ होरा वापि मुहूर्तो वा दिनपादोऽस्य वा गतौ । - स्थितेरुपद्रवाणां वा ज्ञानात् ब्रूयाद् भिषगवरः॥ ६१ ॥ एक घंटा, ढाई घंटा अथवा तीन घंटा तक यह ठहरेगा, ऐसा

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