Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 24
________________ प्रथमोऽध्यायः १५ मक्षिका आदि से व्याप्त हो तो वह केवल एक मास जियेगा । उसे एक महीना के समनन्तर यमराज का अतिथि समझे ।। ४५ ।। अब स्पर्श से मृत्युज्ञान अरिष्ट को कहता हूँ । अथ स्पर्शे परिज्ञेयं मृत्युज्ञानमिहोच्यते । यज्ज्ञानान्नैव मुह्येत भिषक् स्तुत्यभिलाषुकः ॥ ४६॥ अब स्पर्शमात्र से जानने योग्य मृत्युज्ञान को इस अरिष्ट प्रकरण में कहता हूँ, जिसके जानने से स्तुति का अभिलाषी - यश का चाहने वाला वैद्य मोह को प्राप्त नहीं होता है, अर्थात निश्चित मरण-समय बता देता है । ४६ ॥ व्याधितस्य स्पृशेद् गात्रं सुस्थेन स्वेन पाणिना । मर्दयेद् वा परेणैवं तदङ्गं स्वल्पमात्रतः ॥ ४७ ॥ सुस्थ अपने हाथ से बीमार मनुष्य के शरीर का स्पर्श करें । अथवा अन्य के द्वारा स्वल्पमात्र उस उग्र बीमार का अथवा चिर बीमार के शरीर का मर्दन करावे, अर्थात् उसके शरीर को कुछ मलवाये ।। ४७ । तत्र भावा भवन्तीमे सम्यक् तानवलोकयेत् । सततं सन्दमानाङ्गं स्तम्भ भवति सत्वरम् ॥ ४८ ॥ उस मर्दित स्थान पर ये भाव होते हैं, उन्हें सम्यक् प्रकार सावधानी से देखे, उस रुग्ण मनुष्य का सतत स्पन्दमान अङ्ग एक दम स्तब्ध हो जाता है ॥ ४५ ॥ दारुणत्वं च मृदुनः शैत्यं चापि तथोष्मणः । श्लक्ष्णस्य च खरत्वं स्यात् असद्भावः सतामपि ॥ ४९ ॥ और मृदु कोमल वह अङ्ग कठोर हो जाता है तथा उष्ण- गरम वह अङ्ग शीत हो जाता है, चिकने उस अङ्ग का खरखरापन अर्थात् रूखापन हो जायगा, स्पष्ट प्रतीयमान वह स्थान अप्रतीयमान हो जायगा, अर्थात् वहां का मांस इधर उधर हो जायगा ॥ ४६ ॥

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