Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 22
________________ १३ प्रथमोऽध्यायः जिसके देह से विष्ठा, मूत्र, शव (मुर्दा) के समान अथवा मांस, शोणित ( रुधिर ) के सदृश गन्ध आवे वह एक वर्ष तक जीवित नहीं रहता है ।। ३७ ॥ दुर्गन्धं वा सुगन्धं वा यस्य पशेद् मिषक तनौ। पुष्पितं तं परिज्ञाय वर्षे मरणमादिशेत् ॥ ३८॥ वैद्य जिसके देह में स्थिर-सदा स्थायिनी हमेशा रहने वाली सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध को देखे उसे पुष्पित समझ कर वर्ष मात्र में मरने को कह दे । एक वर्ष से अधिक नहीं जियेगा ॥ ३८ ॥ वर्णगन्धपरिज्ञान-मिदमार्षमुदीरितम् । अतः परं रसादेश्च ज्ञानात्तत्समुदीर्यते ॥ ३९ ॥ इस प्रकार शौक्ल्यादि वर्गों का और गन्ध का परिज्ञान अर्थात् वर्ण-गन्धजन्य अग्निवेश ऋषिप्रणीत अरिष्टज्ञान को कहा; अब । इसके अनन्तर रसादिक के ज्ञान से उस अरिष्ट को कहता हूँ ॥३६॥ वैरस्यं स्वतनौ कश्चित् कश्चिन्माधुर्यमश्नुते । आतुरस्तदहं वच्मि येन वैद्यो न मुह्यति ॥ ४० ॥ कोई रोगी अपने शरीर में वैरस्य को और कोई माधुर्य को धारण करता है। तात्पर्य यह है कि वैरस्य के कारण मक्षिका आदि उसके पास नहीं आती हैं और माधुर्य के कारण अत्यधिक आती हैं, जिसका अरिष्टत्वेन आगे वर्णन करेंगे। उस वैरस्यादि को मैं कहता हूँ, जिससे वैद्य मोहित नहीं होता है, अर्थात् जीवनादिक के भ्रम में नहीं पड़ता ॥ ४० ॥ प्रथम वैरस्य-परिज्ञान को कहता हूँ। यस्य देहात्पलायन्ते यूकादंशकमक्षिकाः। मत्कुणा मशकाश्चापि विरसं तं त्यजेद् भिषक् ।। ४१ ॥ जिस रोगी के देह से यूक-शिर में पड़नेवाले जू अथवा वस्त्रों में

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